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कहानजैनशास्त्रमाला
नवपदार्थपूर्वक-मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[२१७
अथ मोक्षपदार्थव्याख्यानम्।
हेदुमभावे णियमा जायदि णाणिस्स आसवणिरोधो। आसवभावेण विणा जायदि कम्मस्स दुणिरोधो।। १५०।। कम्मस्साभावेण य सव्वण्हू सव्वलोगदरिसी य। पावदि इंदियरहिदं अव्वाबाहं सुहमणंतं ।। १५१ ।।
हेत्वभावे नियमाज्जायते ज्ञानिनः आस्रवनिरोधः। आस्रवभावेन विना जायते कर्मणस्तु निरोधः।। १५० ।। कर्मणामभावेन च सर्वज्ञः सर्वलोकदर्शी च। प्राप्नोतीन्द्रियरहितमव्याबाधं सुखमनन्तम्।। १५१।।
द्रव्यकर्ममोक्षहेतुपरमसंवररूपेण भावमोक्षस्वरूपाख्यानमेतत्।
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अब मोक्षपदार्थका व्याख्यान है।
गाथा १५०-१५१
अन्वयार्थ:- [हेत्वभावे] [ मोहरागद्वेषरूप] हेतुका अभाव होनेसे [ज्ञानिन:] ज्ञानीको [नियमात् ] नियमसे [आस्रवनिरोध: जायते] आस्रवका निरोध होता है [ तु] और [ आस्रवभावेन विना] आस्रवभावके अभावमें [कर्मण: निरोध: जायते ] कर्मका निरोध होता है। [च] और [ कर्मणाम् अभावेन ] कर्मोंका अभाव होनेसे वह [ सर्वज्ञः सर्वलोकदर्शी च] सर्वज्ञ और सर्वलोकदर्शी होता हुआ [ इन्द्रियरहितम् ] इन्द्रियरहित, [अव्याबाधम् ] अव्याबाध, [अनन्तम् सुखम् प्राप्नोति ] अनन्त सुखको प्राप्त करता है।
टीका:- यह, 'द्रव्यकर्ममोक्षके हेतुभूत परम-संवररूपसे भावमोक्षके स्वरूपका कथन है।
१। द्रव्यकर्ममोक्ष द्रव्यकर्मका सर्वथा छूट जानाः द्रव्यमोक्ष [ यहाँ भावमोक्षका स्वरूप द्रव्यमोक्षके निमित्तभूत परम
संवररूपसे दर्शाया है।
हेतु-अभावे नियमथी आस्रवनिरोधन ज्ञानीने, आसरवभाव-अभावमां कर्मो तणुं रोधन बने; १५० । कर्मो-अभावे सर्वज्ञानी सर्वदर्शी थाय छे. ने अक्षरहित , अनंत, अव्याबाध सुखने ते लहे। १५१ ।
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