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कहानजैनशास्त्रमाला]
नवपदार्थपूर्वक-मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[ २१९
ततः कर्माभावे स हि भगवान्सर्वज्ञः सर्वदर्शी व्युपरतेन्द्रिय-व्यापाराव्याबाधानन्तसुखश्च नित्यमेवावतिष्ठते। इत्येष भावकर्ममोक्षप्रकार: द्रव्यकर्ममोक्षहेतुः परम-संवरप्रकारश्च ।। १५०-१५१।।
दंसणणाणसमग्गं झाणं णो अप्णदव्वसंजुत्तं। जायदि णिज्जरहेदू सभावसहिदस्स साधुस्स।। १५२ ।।
दर्शनज्ञानसमग्रं ध्यानं नो अन्यद्रव्यसंयुक्तम्। जायते निर्जराहेतु: स्वभावसहितस्य साधोः।। १५२।।
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इसलिये कर्मका अभाव होने पर वह वास्तवमें भगवान सर्वज्ञ, सर्वदर्शी तथा इन्द्रियव्यापारातीतअव्याबाध-अनन्तसुखवाला सदैव रहता है।
इस प्रकार यह [ जो यहाँ कहा है वह ], भावकर्ममोक्षका प्रकार तथा द्रव्यकर्ममोक्षका हेतुभूत परम संवरका प्रकार है ।। १५०-१५१।।
गाथा १५२
___ अन्वयार्थ:- [स्वभावसहितस्य साधोः] स्वभावसहित साधुको [-स्वभावपरिणत केवलीभगवानको ] [ दर्शनज्ञानसमग्रं ] दर्शनज्ञानसे सम्पूर्ण और [ नो अन्यद्रव्य- संयुक्तम्]
१। कूटस्थ सर्व काल एक रूप रहनेवालाः अचल। [ज्ञानावरणादि घातिकर्मोंका नाश होने पर ज्ञान कहीं सर्वथा
अपरिणामी नहीं हो जाता; परन्तु वह अन्य-अन्य ज्ञेयोंको जाननेरूप परिवर्तित नहीं होता-सर्वदा तीनों कालके समस्त ज्ञेयोंको जानता रहता है, इसलिये उसे कथंचित् कूटस्थ कहा है।]
२। भावकर्ममोक्ष भावकर्मका सर्वथा छूट जाना; भावमोक्ष। [ज्ञप्तिक्रियामें क्रमप्रवृत्तिका अभाव होना वह भावमोक्ष है
अथवा सर्वज्ञ -सर्वदर्शीपनेकी और अनन्तानन्दमयपनेकी प्रगटता वह भावमोक्ष है।]
३। प्रकार स्वरूप; रीत।
दृगज्ञानथी परिपूर्ण ने परद्रव्यविरहित ध्यान जे , ते निर्जरानो हेतु थाय स्वभावपरिणत साधुने। १५२ ।
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