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२०२]
पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
सण्णाओ य तिलेस्सा इंदियवसदा य अट्टरुद्दाणि। णाणं च दुप्पउत्तं मोहो पावप्पदा होति।।१४०।।
संज्ञाश्च त्रिलेश्या इन्द्रियवशता चार्तरौद्रे। ज्ञानं च दुःप्रयुक्तं मोहः पापप्रदा भवन्ति।।१४०।।
पापास्रवभूतभावप्रपञ्चाख्यानमेतत्। तीव्रमोहविपाकप्रभवा आहारभयमैथुनपरिग्रहसंज्ञाः, तीव्रकषायोदयानुरंजितयोगप्रवृत्ति-रूपाः कृष्णनीलकापोतलेश्यास्तिस्रः, रागद्वेषोदयप्रकर्षादिन्द्रियाधीनत्वम्,
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कारणभूत हैं इसलिये 'द्रव्यपापासव' के प्रसंगका अनुसरण करके [-अनुलक्ष करके ] वे अशुभ भाव भावपापास्रव हैं और वे [अशुभ भाव] जिनका निमित्त हैं ऐसे जो योगद्वारा प्रविष्ट होनेवाले पुद्गलोंके अशुभकर्मपरिणाम [-अशुभकर्मरूप परिणाम ] वे द्रव्यपापास्रव हैं।। १३९ ।।
गाथा १४०
__ अन्वयार्थ:- [ संज्ञाः च] [ चारों ] संज्ञाएँ, [ त्रिलेश्या ] तीन लेश्याएँ, [इन्द्रियवशता च] इन्द्रियवशता, [ आर्तरौद्रे ] आर्त-रौद्रध्यान, [ दुःप्रयुक्तं ज्ञानं ] दुःप्रयुक्त ज्ञान [-दुष्टरूपसे अशुभ कार्यमें लगा हुआ ज्ञान ] [च ] और [ मोहः ] मोह-[पापप्रदाः भवन्ति ] यह भाव पापप्रद है।
टीका:- यह, पापास्रवभूत भावोंके विस्तारका कथन है।
तीव्र मोहके विपाकसे उत्पन्न होनेवाली आहार-भय-मैथुन-परिग्रहसंज्ञाएँ; तीव्र कषायके उदयसे अनुरंजित योगप्रवृत्तिरूप कृष्ण-नील-कापोत नामकी तीन लेश्याएँ;
१। असातावेदनीयादि पुदगलपरिणामरूप द्रव्यपापास्रवका जो प्रसंग बनता है उसमें जीवके अशुभ भाव निमित्तकारण हैं इसलिये 'द्रव्यपापास्रव' प्रसंगके पीछे-पीछे उनके निमित्तभूत अशुभ भावोंको भी 'भावपापासव' ऐसा नाम है। २। अनुरंजित = रंगी हुई। [कषायके उदयसे अनुरंजित योगप्रवृत्ति वह लेश्या है। वहाँ, कृष्णादि तीन लेश्याएँ तीव्र कषायके उदयसे अनुरंजित योगप्रवृत्तिरूप है।]
संज्ञा, त्रिलेश्या, इन्द्रिवशता, आर्तरौद्र ध्यान बे, वळी मोह ने दुर्युक्त ज्ञान प्रदान पाप तणुं करे। १४०।
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