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कहानजैनशास्त्रमाला]
नवपदार्थपूर्वक-मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[ २०३
रागद्वेषोद्रेकात्प्रिय-संयोगाप्रियवियोगवेदनामोक्षणनिदानाकांक्षणरूपमार्तम्, कषायक्रूराशयत्वाद्धिंसाऽसत्यस्तेयविषय-संरक्षणानंदरूपं रौद्रम् , नैष्कर्म्यं तु शुभकर्मणश्चान्यत्र दुष्टतया प्रयुक्तं ज्ञानम्, सामान्येन दर्शन-चारित्रमोहनीयोदयोपजनिताविवेकरूपो मोहः, -एष: भावपापासवप्रपञ्चो द्रव्यपापास्रवप्रपञ्चप्रदो भवतीति।।१४०।।
-इति आस्रवपदार्थव्याख्यानं समाप्तम्। अथ संवरपदार्थव्याख्यानम्।
इंदियकसायसण्णा णिग्गहिदा जेहिं सुट्ठ मग्गम्हि। जावत्तावत्तेसिं पिहिदं पावासवच्छिदं ।। १४१।।
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रागद्वेषके उदयके 'प्रकर्षके कारण वर्तता हुआ इन्द्रियाधीनपना; रागद्वेषके उद्रेकके कारण प्रियके संयोगकी, अप्रियके वियोगकी, वेदनासे छुटकाराकी तथा निदानकी इच्छारूप आर्तध्यानः कषाय द्वारा 'क्रूर ऐसे परिणामके कारण होनेवाला हिंसानन्द, असत्यानन्द, स्तेयानन्द एवं विषयसंरक्षणानन्दरूप रौद्रध्यान; निष्प्रयोजन [ –व्यर्थ] शुभ कर्मसे अन्यत्र [-अशुभ कार्यमें ] दुष्टरूपसे लगा हुआ ज्ञान; और सामान्यरूपसे दर्शनचारित्र मोहनीयके उदयसे उत्पन्न अविवेकरूप मोह;- यह, भावपापास्रवका विस्तार द्रव्यपापास्रवके विस्तारको प्रदान करनेवाला है [ अर्थात् उपरोक्त भावपापास्रवरूप अनेकविध भाव वैसे-वैसे अनेकविध द्रव्यपापास्रवमें निमित्तभूत हैं]।। १४०।।
इस प्रकार आस्रवपदार्थका व्याख्यान समाप्त हुआ।
अब , संवरपदार्थका व्याख्यान है।
१। प्रकर्ष = उत्कर्ष; उग्रता
२। उद्रेक = बहुलता; अधिकता ।
३। क्रूर = निर्दय; कठोर; उग्र।
मार्गे रही संज्ञा-कषायो-इन्द्रिनो निग्रह करे, पापासरवनुं छिद्र तेने तेटलुं रूंधाय छ। १४१ ।
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