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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates १९८] पंचास्तिकायसंग्रह [भगवानश्रीकुन्दकुन्द प्रशस्तरागस्वरूपाख्यानमेतत्। अर्हत्सिद्धसाधुषु भक्तिः, धर्मे व्यवहारचारित्रानुष्ठाने वासनाप्रधाना चेष्टा, ---------- टीकाः- यह, प्रशस्त रागके स्वरूपका कथन है। अर्हन्त-सिद्ध-साधुओंके प्रति भक्ति, धर्ममें-व्यवहारचारित्रके अनुष्ठानमें- भावनाप्रधान चेष्टा और गुरुओंका-आचार्यादिका-रसिकभावसे अनुगमन, यह 'प्रशस्त राग' है क्योंकि उसका विषय प्रशस्त है। १। अर्हन्त-सिद्ध-साधुओंमें अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु पाँचोंका समावेश हो जाता है क्योंकि 'साधुओं में आचार्य, उपाध्याय और साधु तीनका समावेश होता है। [ निर्दोष परमात्मासे प्रतिपक्षभूत ऐसे आर्त-रौद्रध्यानों द्वारा उपार्जित जो ज्ञानावरणादि प्रकृतियाँ उनका, रागादिविकल्परहित धर्म-शुक्लध्यानों द्वारा विनाश करके, जो क्षुधादि अठारह दोष रहित और केवलज्ञानादि अनन्त चतुष्टय सहित हुए, वे अर्हन्त कहलाते हैं। लौकिक अंजनसिद्ध आदिसे विलक्षण ऐसे जो ज्ञानावरणादि-अष्टकर्मके अभावसे सम्यकत्वादि-अष्टगुणात्मक हैं और लोकाग्रमें बसते हैं. वे सिद्ध हैं। विशुद्ध ज्ञानदर्शन जिसका स्वभाव है ऐसे आत्मतत्त्वकी निश्चयरुचि, वैसी ही ज्ञप्ति, वैसी ही निश्चलअनुभूति, परद्रव्यकी इच्छाके परिहारपूर्वक उसी आत्मद्रव्यमें प्रतपन अर्थात् तपश्चरण और स्वशक्तिको गोपे बिना वैसा ही अनुष्ठान-ऐसे निश्चयपंचाचारको तथा उसके साधक व्यवहारपंचाचारको-कि जिसकी विधि आचारादिशास्त्रोंमें कही है उसे–अर्थात् उभय आचारको जो स्वयं आचरते है और दूसरोंको उसका आचरण कराते हैं, वे आचार्य हैं। ___ पाँच अस्तिकायोंमें जीवास्तिकायको, छह द्रव्योंमें शुद्धजीवद्रव्यको, सात तत्त्वोमें शुद्धजीवतत्त्वको और नव पदार्थों में शुद्धजीवपदाथको जो निश्चयनयसे उपादेय कहते हैं तथा भेदाभेदरत्नत्रयस्वरूप मोक्षमार्गकी प्ररूपणा करते हैं और स्वयं भाते [ –अनुभव करते ] हैं, वे उपाध्याय हैं। निश्चय-चतुर्विध-आराधना द्वारा जो शुद्ध आत्मस्वरूपकी साधना करते हैं, वे साधु हैं।] २। अनुष्ठान = आचरण; आचरना; अमलमें लाना। ३। भावनाप्रधान चेष्टा = भावप्रधान प्रवृत्ति; शुभभावप्रधान व्यापार। ४। अनुगमन = अनुसरण; आज्ञांकितपना; अनुकूल वर्तन। [ गुरुओंके प्रति रसिकभावसे (उल्लाससे, उत्साहसे) आज्ञांकित वर्तना वह प्रशस्त राग है।] Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008395
Book TitlePunchaastikaai Sangrah
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages293
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size3 MB
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