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कहानजैनशास्त्रमाला]
नवपदार्थपूर्वक-मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[ १९७
पुण्यासवस्वरूपाख्यानमेतत्।
प्रशस्तरागोऽनुकम्पापरिणतिः चित्तस्याकलुषत्वञ्चेति त्रयः शुभा भावाः द्रव्यपुण्यास्रवस्य निमित्तमात्रत्वेन कारणभुतत्वात्तदास्रवक्षणादूर्ध्वं भावपुण्यास्रवः। तन्निमित्त: शुभकर्मपरिणामो योगद्वारेण प्रविशतां पुद्गलानां द्रव्यपुण्यास्रव इति।। १३५ ।।
अरहंतसिद्धसाहुसु भत्ती धम्मम्मि जा य खलु चेट्ठा। अणुगमणं पि गुरूणं पसत्थरागो त्ति वुचंति।।१३६ ।।
अर्हत्सिद्धसाधुषु भक्तिधर्मे या च खलु चेष्टा। अनुगमनमपि गुरूणां प्रशस्तराग इति ब्रुवन्ति।। १३६ ।।
टीका:- यह , पुण्यास्रवके स्वरूपका कथन है।
प्रशस्त राग, अनुकम्पापरिणति और चित्तकी अकलुषता-यह तीन शुभ भाव द्रव्यपुण्यासवको निमित्तमात्ररूपसे कारणभूत हैं इसलिये 'द्रव्यपुण्यासव' के प्रसंगका अनुसरण करके [-अनुलक्ष करके ] वे शुभ भाव भावपुण्यास्रव हैं और वे [शुभ भाव ] जिसका निमित्त हैं ऐसे जो योगद्वारा प्रविष्ट होनेवाले पुद्गलोंके शुभकर्मपरिणाम [-शुभकर्मरूप परिणाम ] वे द्रव्यपुण्यास्रव हैं।। १३५ ।।
गाथा १३६
अन्वयार्थ:- [अर्हत्सिद्धसाधुषु भक्तिः ] अर्हन्त-सिद्ध-साधुओंके प्रति भक्ति, [धर्म या च खलु चेष्टा] धर्ममें यथार्थतया चेष्टा [ अनुगमनम् अपि गुरूणाम् ] और गुरुओंका अनुगमन, [ प्रशस्तरागः इति ब्रुवन्ति ] वह ‘प्रशस्त राग' कहलाता है।
१। सातावेदनीयादि पुदगलपरिणामरूप द्रव्यपुण्यास्रवका जो प्रसङ्ग बनता है उसमें जीवके प्रशस्त रागादि शुभ भाव निमित्तकारण हैं इसलिये 'द्रव्यपुण्यास्रव' प्रसङ्गके पीछे-पीछे उसके निमित्तभूत शुभ भावोंको भी 'भावपुण्यासव' ऐसा नाम है।
अर्हत-साधु-सिद्ध प्रत्ये भक्ति, चेष्टा धर्ममां, गुरुओ तणुं अनुगमन-ओ परिणाम राग प्रशस्तना। १३६ ।
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