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१९६] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द कर्माण्यवगाहते, तत्परिणामनिमित्तलब्धात्मपरिणामैः मूर्तकर्मभिरपि विशिष्टतयाऽवगाह्यते च। अयं त्वन्योन्यावगाहात्मको जीवमूर्तकर्मणोर्बंधप्रकारः। एवममूर्तस्यापि जीवस्य मूर्तेन पुण्यपापकर्मणा कथञ्चिद्वन्धो न विरुध्यते।।१३४ ।।
-इति पुण्यपापपदार्थव्याख्यानम्।
अथ आस्रवपदार्थव्याख्यानम्।
रागो जस्स पसत्थो अणुकंपासंसिदो य परिणामो। चित्तम्हि णत्थि कलुसं पुण्णं जीवस्स आसवदि।। १३५ ।।
रागो यस्य प्रशस्तोऽनुकम्पासंश्रितश्च परिणामः। चित्ते नास्ति कालुष्यं पुण्यं जीवस्यास्रवति।।१३५।।
पुनश्च [अमूर्त जीवका मूर्तकर्मोके साथ बन्धप्रकार इस प्रकार है कि], निश्चयनयसे जो अमूर्त है ऐसा जीव, अनादि मूर्तकर्म जिसका निमित्त है ऐसे रागादिपरिणाम द्वारा स्निग्ध वर्तता हुआ, मूर्तकर्मोको विशिष्टरूपसे अवगाहता है [अर्थात् एक-दूसरेको परिणाममें निमित्तमात्र हों ऐसे सम्बन्धविशेष सहित मूर्तकर्मोंके क्षेत्रमें व्याप्त होता है और उस रागादिपरिणामके निमित्तसे जो अपने [ ज्ञानावरणादि] परिणामको प्राप्त होते हैं ऐसे मूर्तकर्म भी जीवको विशिष्टरूपसे अवगाहते हैं [अर्थात् जीवके प्रदेशोंके साथ विशिष्टतापूर्वक एकक्षेत्रावगाहको प्राप्त होते हैं। यह, जीव और मूर्तकर्मका अन्योन्य-अवगाहस्वरूप बन्धप्रकार है। इस प्रकार अमूर्त ऐसे जीवका भी मूर्त पुण्यपापकर्मके साथ कथंचित् [-किसी प्रकार ] बन्ध विरोधको प्राप्त नहीं होता।। १३४।।
इस प्रकार पुण्य-पापपदार्थका व्याख्यान समाप्त हुआ।
अब आस्रवपदार्थका व्याख्यान है।
गाथा १३५
अन्वयार्थ:- [यस्य ] जिस जीवको [प्रशस्तः रागः] प्रशस्त राग है, [अनुकम्पासंश्रितः परिणामः ] अनुकम्पायुक्त परिणाम है [च] और [ चित्ते कालुष्यं न अस्ति ] चित्तमें कलुषताका अभाव है, [ जीवस्य ] उस जीवको [ पुण्यम् आस्रवति ] पुण्य आस्रवित होता है।
छे रागभाव प्रशस्त, अनुकंपासहित परिणाम छे, मनमां नहीं कालुष्य छे, त्यां पुण्य-आस्रव होय छे। १३५।
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