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कहानजैनशास्त्रमाला]
नवपदार्थपूर्वक-मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
गुरूणामाचार्यादीनां रसिकत्वेनानुगमनम्-एषः प्रशस्तो रागः प्रशस्तविषयत्वात्। अयं हि स्थूललक्ष्यतया केवलभक्तिप्रधानस्याज्ञानिनो भवति। उपरितनभूमिकायामलब्धास्पदस्यास्थानरागनिषेधार्थं तीव्ररागज्वरविनोदार्थं वा कदाचिज्ज्ञानिनोऽपि भवतीति।। १३६ ।।
तिसिदं व भुक्खिदं वा दुहिदं दद्दूण जो दु दुहिदमणो। पडिवज्जदि तं किवया तस्सेसा होदि अणुकंपा।।१३७।।
तृषितं बुभुक्षितं वा दुःखितं दृष्ट्वा यस्तु दुःखितमनाः। प्रतिपद्यते तं कृपया तस्यैषा भवत्यनुकम्पा।। १३७।।
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यह [प्रशस्त राग] वास्तवमें, जो 'स्थूल-लक्ष्यवाला होनेसे केवल भक्तिप्रधान है ऐसे अज्ञानीको होता है; उच्च भूमिकामें [-उपरके गुणस्थानोंमें ] स्थिति प्राप्त न की हो तब, अस्थानका राग रोकनेके हेतु अथवा तीव्र रागज्वर हठानेके हेतु, कदाचित् ज्ञानीको भी होता है।। १३६ ।।
गाथा १३७
अन्वयार्थ:- [ तृषितं ] तृषातुर, [ बुभुक्षितं ] क्षुधातुर [ वा] अथवा [ दुःखितं ] दुःखीको [दृष्ट्वा ] देखकर [ यः तु] जो जीव [ दुःखितमनाः ] मनमें दुःख पाता हुआ [ तं कृपया प्रतिपद्यते] उसके प्रति करुणासे वर्तता है, [ तस्य एषा अनुकम्पा भवति ] उसका वह भाव अनुकम्पा है।
टीका:- यह , अनुकम्पाके स्वरूपका कथन है।
किसी तृषादिदुःखसे पीड़ित प्राणीको देखकर करुणाके कारण उसका प्रतिकार [-उपाय] करने की इच्छासे चित्तमें आकुलता होना वह अज्ञानीकी अनुकम्पा है। ज्ञानीकी अनुकम्पा तो, नीचली भूमिकामें विहरते हुए [-स्वयं नीचले गुणस्थानोंमें वर्तता हो तब], जन्मार्णवमें निमग्न जगतके
१। अज्ञानीका लक्ष्य [-ध्येय ] स्थूल होता है इसलिये उसे केवल भक्तिकी ही प्रधानता होती है।
२। अस्थानका = अयोग्य स्थानका , अयोग्य विषयकी ओरका ; अयोग्य पदार्थों का अवलम्बन लेने वाला।
दुःखित, तृषित वा क्षुधित देखी दुःख पामी मन विषे करुणाथी वर्ते जेह, अनुकंपा सहित ते जीव छे। १३७।
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