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कहानजैनशास्त्रमाला ]
प्रपञ्चितविवित्रविकल्परूपैः,
नवपदार्थपूर्वक-मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
निश्चयनयेन मोहरागद्वेषपरिणतिसंपादितविश्वरूपत्वात्कदाचिदशुद्धैः कदाचित्तदभावाच्छुद्धैश्चैतन्यविवर्तग्रन्थिरूपैर्बहुभिः पर्यायैः जीवमधिगच्छेत् । अधिगम्य चैवमचैतन्यस्वभावत्वात् ज्ञानादर्थांतरभूतैरितः प्रपंच्यमानैर्लिङ्गैर्जीवसंबद्धमसंबद्धं वा स्वतो भेदबुद्धि - प्रसिद्ध्य र्थमजीवमधिगच्छेदिति ।। १२३ ।।
-इति जीवपदार्थव्याख्यानं समाप्तम्।
इसप्रकार इस निर्देशके अनुसार [ अर्थात् उपर संक्षेपमें समझाये अनुसार ], [१] व्यवहारनयसे 'कर्मग्रंथप्रतिपादित जीवस्थान- गुणस्थान-मार्गणास्थान इत्यादि द्वारा प्रपंचित विचित्र भेदरूप बहु पर्यायों द्वारा, तथा [२] निश्चयनयसे मोहराग-द्वेषपरिणतिसंप्राप्त विश्वरूपताके कारण कदाचित् अशुद्ध [ ऐसी ] और कदाचित् उसके [ - मोहरागद्वेषपरिणतिके] अभावके कारण शुद्ध ऐसी “चैतन्यविवर्तग्रन्थिरूप बहु पर्यायों द्वारा, जीवको जानो । इसप्रकार जीवको जानकर, अचैतन्यस्वभावके "ज्ञानसे अर्थांतरभूत ऐसे, यहाँसे [ अबकी गाथाओंमें ] कहे जानेवाले लिंगों द्वारा, 'जीवसम्बद्ध या जीव-असम्बद्ध अजीवको, अपनेसे भेदबुद्धिकी प्रसिद्धिके लिये जानो ।। १२३ ।।
कारण,
इसप्रकार जीवपदार्थका व्याख्यान समाप्त हुआ।
=
[ १८३
१। कर्मग्रंथप्रतिपादित
२। प्रपंचित = विस्तारपूर्वक कही गई ।
३। मोहरागद्वेषपरिणतिके कारणा जीवको विश्वरूपता अर्थात् अनेकरूपता प्राप्त होती है।
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४। ग्रन्थि गाँठ। [ जीवकी कदाचित् अशुद्ध और कदाचित् शुद्ध ऐसी पर्यायें चैतन्यविवर्तकी -चैतन्यपरिणमनकीग्रन्थियाँ हैं; निश्चयनयसे उनके द्वारा जीवको जानो। ]
गोम्मटसारादि कर्मपद्धतिके ग्रन्थोमें प्ररूपित -निरूपित ।
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५ । ज्ञानसे अर्थान्तरभूत ज्ञानसे अन्यवस्तुभूत; ज्ञानसे अन्य अर्थात् जड़ । [ अजीवका स्वभाव अचैतन्य होनेके कारण ज्ञानसे अन्य ऐसे जड़ चिह्नों द्वारा वह ज्ञात होता है । ]
६। जीवके साथ सम्बद्ध या जीव साथ असम्बद्ध ऐसे अजीवको जाननेका प्रयोजन यह है कि समस्त अजीव अपनेसे [ स्वजीवसे ] बिलकुल भिन्न हैं ऐसी बुद्धि उत्पन्न हो ।
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