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१८२]
पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
एवमभिगम्म जीवं अण्णेहिं वि पज्जएहिं बहुगेहिं। अभिगच्छदु अज्जीवं णाणंतरिदेहिं लिंगेहिं।। १२३ ।।
एवमभिगम्य जीवमन्यैरपि पर्यायैर्बहुकैः। अभिगच्छत्वजीवं ज्ञानांतरितैर्लिङ्गैः।। १२३।।
जीवाजीवव्याखयोपसंहारोपक्षेपसूचनेयम्।
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भावार्थ:- शरीर, इन्द्रिय, मन, कर्म आदि पुद्गल या अन्य कोई अचेतन द्रव्य कदापि जानते नहीं है, देखते नहीं है, सुखकी इच्छा नहीं करते, दुःखसे डरते नहीं है, हित-अहितमें प्रवर्तते नहीं है या उनके फलको नहीं भोगते; इसलिये जो जानता है और देखता है, सुखकी इच्छा करता है, दुःखसे भयभीत होता है, शुभ-अशुभ भावोंमें प्रवर्तता है और उनके फलको भोगता है, वह, अचेतन पदार्थों के साथ रहने पर भी सर्व अचेतन पदार्थोंकी क्रियाओंसे बिलकुल विशिष्ट प्रकारकी क्रियाएँ करनेवाला, एक विशिष्ट पदार्थ है। इसप्रकार जीव नामका चैतन्यस्वभावी पदार्थविशेष-कि जिसका ज्ञानी स्वयं स्पष्ट अनुभव करते हैं वह-अपनी असाधारण क्रियाओं द्वारा अनुमेय भी है।। १२२ ।।
गाथा १२३
अन्वयार्थ:- [ एवम् ] इसप्रकार [अन्यैः अपि बहुकैः पर्यायैः ] अन्य भी बहुत पर्यायों द्वारा [ जीवम् अभिगम्य ] जीवको जानकर [ ज्ञानांतरितैः लिङ्गैः] ज्ञानसे अन्य ऐसे [जड़ ] लिंगों द्वारा [ अजीवम् अभिगच्छतु] अजीव जानो।
टीका:- यह, जीव-व्याख्यानके उपसंहारकी और अजीव-व्याख्यानके प्रारम्भकी सूचना है।
बीजाय बहु पर्यायथी ओ रीत जाणी जीवने, जाणो अजीवपदार्थ ज्ञानविभिन्न जड लिंगो वडे । १२३ ।
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