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कहानजैनशास्त्रमाला ]
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नवपदार्थपूर्वक-मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[ १८१
अन्यासाधारणजीवकार्यख्यापनमेतत्।
चैतन्यस्वभावत्वात्कर्तृस्थायाः क्रियायाः ज्ञप्तेर्हशेश्च जीव एव कर्ता, न तत्संबन्ध: पुद्गलो, यथाकाशादि। सुखाभिलाषक्रियायाः दुःखोद्वेगक्रियायाः स्वसंवेदितहिताहितनिर्विर्तनक्रियायाश्च चैतन्यविवर्तरूपसङ्कल्पप्रभवत्वात्स एव कर्ता, नान्यः । शुभाशुभाकर्मफलभूताया इष्टानिष्टविषयोपभोगक्रियायाश्च सुखदुःखस्वरूपस्वपरिणामक्रियाया इव स एव कर्ता, नान्यः। एतेनासाधारणकार्यानुमेयत्वं पुद्गलव्यतिरिक्तस्यात्मनो द्योतितमिति ।। १२२ ।।
हित-अहितको [ शुभ-अशुभ भावोंको ] करता है [वा ] और [ तयोः फलं भुंक्ते ] उनके फलको भोगता है।
टीका:- यह, अन्यसे असाधारण ऐसे जीवकार्योंका कथन है [ अर्थात् अन्य द्रव्योंसे असाधारण ऐसे जो जीवके कार्य वे यहाँ दर्शाये हैं ] ।
चैतन्यस्वभावपनेके कारण, कर्तृस्थित [कर्तामें रहनेवाली ] क्रियाका - ज्ञप्ति तथा दृशिका-जीव ही कर्ता है; उसके सम्बन्धमें रहा हुआ पुद्गल उसका कर्ता नहीं है, जिस प्रकार आकाशादि नहीं है उसी प्रकार। [ चैतन्यस्वभावके कारण जानने और देखने की क्रियाका जीव ही कर्ता है; जहाँ जीव है वहाँ चार अरूपी अचेतन द्रव्य भी हैं तथापि वे जिस प्रकार जानने और देखने की क्रियाके कर्ता नहीं है उसी प्रकार जीवके साथ सम्बन्धमें रहे हुए कर्म - नोकर्मरूप पुद्गल भी उस क्रियाके कर्ता नहीं है।] चैतन्यके विवर्तरूप [ - परिवर्तनरूप] संकल्पकी उत्पत्ति [ जीवमें] होनेके कारण, सुखकी अभिलाषारूप क्रियाका, दुःखके उद्वेगरूप क्रियाका तथा स्वसंवेदित हित-अहित की निष्पत्तिरूप क्रियाका [ -अपनेसे संचेतन किये जानेवाले शुभ - अशुभ भावोंको रचनेरूप क्रियाका ] जीव ही कर्ता है; अन्य नहीं है। शुभाशुभ कर्मके फलभूत इष्टानिष्टविषयोपभोगक्रियाका, दुःखस्वरूप स्वपरिणामक्रियाकी भाँति, जीव ही कर्ता है; अन्य नहीं ।
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सुख
इससे ऐसा समझाया कि [ उपरोक्त ] असाधारण कार्यों द्वारा पुद्गलसे भिन्न ऐसा आत्मा अनुमेय [ – अनुमान कर सकने योग्य ] है।
** इष्टानिष्ट विषय जिसमें निमित्तभूत होते हैं ऐसे सुखदुःखपरिणामोंके उपभोगरूप क्रियाको जीव करता है इसलिये उसे इष्टानिष्ट विषयोंके उपभोगरूप क्रियाका कर्ता कहा जाता है ।
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