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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates १८० पंचास्तिकायसंग्रह [भगवानश्रीकुन्दकुन्द व्यवहारजीवत्वैकांतप्रतिपत्तिनिरासोऽयम्। य इमे एकेन्द्रियादयः पृथिवीकायिकादयश्चानादिजीवपुद्गलपरस्परावगाहमवलोक्य व्यवहारनयेन जीवप्राधान्याञ्जीवा इति प्रज्ञाप्यंते। निश्चयनयेन तेषु स्पर्शनादीन्द्रियाणि पृथिव्यादयश्च कायाः जीवलक्षणभूतचैतन्यस्वभावाभावान्न जीवा भवंतीति। तेष्वेव यत्स्वपरपरिच्छित्तिरूपेण प्रकाशमानं ज्ञानं तदेव गुणगुणिनोः कथञ्चिदभेदाज्जीवत्वेन प्ररूप्यत इति।।१२१।। जाणदि पस्सदि सव्वं इच्छदि सुक्खं बिभेदि दुक्खादो। कुव्वदि हिदमहिदं वा भुंजदि जीवो फलं तेसिं।।१२२ ।। जानाति पश्यति सर्वमिच्छति सौख्यं बिभेति दु:खात्। करोति हितमहितं वा भुंक्ते जीव: फलं तयोः ।। १२२।। - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - ------------ प्रकारकी शास्त्रोक्त कायें भी जीव नहीं है; [ तेषु ] उनमें [ यद् ज्ञानं भवति ] जो ज्ञान है [ तत् जीवः] वह जीव है [इति च प्ररूपयन्ति ] ऐसी [ ज्ञानी] प्ररूपणा करते हैं। टीका:- यह, व्यवहारजीवत्वके एकान्तकी प्रतिपत्तिका खण्डन है [अर्थात् जिसे मात्र व्यवहारनयसे जीव कहा जाता है उसका वास्तवमें जीवरूपसे स्वीकार करना उचित नहीं है ऐसा यहाँ समझाया है। यह जो एकेन्द्रियादि तथा पृथ्वीकायिकादि, 'जीव' कहे जाते हैं, अनादि जीव -पुद्गलका परस्पर अवगाह देखकर व्यवहारनयसे जीवके प्राधान्य द्वारा [-जीवको मुख्यता देकर ] 'जीव' कहे जाते हैं। निश्चयनयसे उनमें स्पर्शनादि इन्द्रियाँ तथा पृथ्वी-आदि कायें, जीवके लक्षणभूत चैतन्यस्वभावके अभावके कारण, जीव नहीं हैं; उन्हींमें जो स्वपरको ज्ञप्तिरूपसे प्रकाशमान ज्ञान है वही, गुण-गुणीके कथंचित् अभेदके कारण, जीवरूपसे प्ररूपित किया जाता है।। १२१ ।। गाथा १२२ अन्वयार्थ:- [ जीवः ] जीव [ सर्वं जानाति पश्यति] सब जानता है और देखता है, [ सौख्यम् इच्छति ] सुखकी इच्छा करता है, [ दुःखात् बिभेति] दुःखसे डरता है, [ हितम् अहितम् करोति] * प्रतिपत्ति = स्वीकृति; मान्यता। जाणे अने देखे बधुं, सुख अभिलषे, दुखथी डरे, हित-अहित जीव करे अने हित-अहितनुं फळ भोगवे। १२२। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008395
Book TitlePunchaastikaai Sangrah
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages293
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size3 MB
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