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________________ १७० ] Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पंचास्तिकायसंग्रह त्वान्मोहबहुलमेव स्पर्शोपलंभं संपादयन्तीति।। ११० ।। ति त्थावरतणुजोगा अणिलाणलकाइया य तेसु तसा । मणपरिणामविरहिदा जीवा एइंदिया णेया । । १११ । । त्रयः स्थावरतनुयोगा अनिलानलकायिकाश्च तेषु त्रसाः । मन:परिणामविरहिता जीवा एकेन्द्रिया ज्ञेयाः ।। १११।। एदे जीवाणिकाया पंचविधा पुढविकाइयादीया । मणपरिणामविरहिदा जीवा एगेंदिया भणिया ।। ११२ ।। रचनाभूत वर्तते हुए, कर्मफलचेतनाप्रधानपनेके कारणे अत्यन्त मोह सहित ही 'स्पर्शोपलब्धि संप्राप्त कराते हैं ।। ११० ।। [ भगवान श्रीकुन्दकुन्द गाथा १११ अन्वयार्थ:- [ तेषु ] उनमें, [ त्रयः ] तीन [ पृथ्वीकायिक, अप्कायिक और वनस्पतिकायिक ] जीव [ स्थावरतनुयोगाः ] स्थावर शरीरके संयोगवाले हैं [च] तथा [ अनिलानलकायिकाः ] वायुकायिक और अग्निकायिक जीव [त्रसाः] त्रस हैं; [ मनःपरिणामविरहिताः] वे सब मनपरिणामरहित [ एकेन्द्रियाः जीवाः ] एकेन्द्रिय जीव [ ज्ञेया: ] जानना।। १११।। = १। स्पर्शोपलब्धि स्पर्शकी उपलब्धि; स्पर्शका ज्ञान; स्पर्शका अनुभव। [ पृथ्वीकायिक आदि जीवोंको स्पर्शनेन्द्रियावरणका [ - भावस्पर्शनेन्द्रियके आवरणका ] क्षयोपशम होता है और वे वे कायें बाह्य स्पर्शनेन्द्रियकी रचनारूप होती हैं, इसलिये वे वे कायें उन-उन जीवोंको स्पर्शकी उपलब्धिमें निमित्तभूत होती हैं। उन जीवोंको होनेवाली स्पर्शोपलब्धि प्रबल मोह सहित ही होती हैं, क्योंकि वे जीव कर्मफलचेतनाप्रधान होते हैं । ] २। वायुकायिक और अग्निकायिक जीवोंको चलनक्रिया देखकर व्यवहारसे त्रस कहा जाता है; निश्चयसे तो वे भी स्थावरनामकर्माधीनपनेके कारण - यद्यपि उन्हें व्यवहारसे चलन है तथापि -स्थावर ही हैं। त्यां जीव त्रण स्थावरतनु, त्रस जीव अग्नि-समीरना; अ सर्व मनपरिणामविरहित ओक - इन्द्रिय जाणवा । १११ । आ पृथ्वीकायिक आदि जीवनिकाय पाँच प्रकारना, सघळाय मनपरिणामविरहित जीव अकेन्द्रिय कह्या । ११२ । Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008395
Book TitlePunchaastikaai Sangrah
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages293
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size3 MB
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