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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक-मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन [१६९ पुढवी य उदगमगणी वाउ वणप्फदि जीवसंसिदा काया। देंति खलु मोहबहुलं फासं बहुगा वि ते तेसिं।।११०।। पृथिवी चोदकमग्निर्वायुर्वनस्पतिः जीवसंश्रिताः कायाः। ददति खलु मोहबहुलं स्पर्शं बहुका अपि ते तेषाम्।। ११० ।। पृथिवीकायिकादिपञ्चभेदोद्देशोऽयम्। पृथिवीकायाः, अपकायाः, तेजःकायाः, वायुकायाः, वनस्पतिकायाः इत्येते पुद्गल-परिणामा बंधवशाज्जीवानुसंश्रिताः, अवांतरजातिभेदाबहुका अपि स्पर्शनेन्द्रियावरणक्षयोपशम-भाजां जीवानां बहिरङ्गस्पर्शनेन्द्रियनिर्वृत्तिभूताः कर्मफलचेतनाप्रधान गाथा ११० अन्वयार्थ:- [ पृथिवी ] पृथ्वीकाय, [ उदकम् ] अप्काय, [ अग्निः] अग्निकाय, [वायुः ] वायुकाय [च] और [ वनस्पतिः] वनस्पतिकाय-[ कायाः ] यह कायें [जीवसंश्रिताः] जीवसहित हैं। [ बहुकाः अपि ते] [ अवान्तर जातियोंकी अपेक्षासे] उनकी भारी संख्या होने पर भी वे सभी [ तेषाम् ] उनमें रहनेवाले जीवोंको [ खलु ] वास्तवमें [ मोहबहुलं ] अत्यन्त मोहसे संयुक्त [स्पर्श ददति] स्पर्श देती हैं [ अर्थात् स्पर्शज्ञानमें निमित्त होती हैं। टीकाः- यह, [ संसारी जीवोंके भेदोमेंसे ] पृथ्वीकायिक आदि पाँच भेदोंका कथन है। पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजःकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय-ऐसे यह पुद्गलपरिणाम बन्धवशात् [बन्धके कारण] जीवसहित हैं। अवान्तर जातिरूप भेद करने पर वे अनेक होने पर भी वे सभी [ पुद्गलपरिणाम], स्पर्शनेन्द्रियावरणके क्षयोपशमवाले जीवोंको बहिरंग स्पर्शनेन्द्रियकी १। काय = शरीर। [ पृथ्वीकाय आदि कायें पुद्गलपरिणाम हैं; उनका जीवके साथ बन्ध होनेके कारण वे जीवसहित होती हैं।] २। अवान्तर जाति = अन्तर्गत-जाति। [ पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजःकाय और वायुकाय-इन चारमेंसे प्रत्येकके सात लाख अन्तर्गत-जातिरूप भेद हैं; वनस्पतिकायके दस लाख भेद हैं।] भू-जल-अनल-वायु-वनस्पतिकाय जीवसहित छे; बहु काय ते अतिमोहसंयुत स्पर्श आपे जीवने। ११० । Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008395
Book TitlePunchaastikaai Sangrah
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages293
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size3 MB
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