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१६८]
पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
अथ जीवपदार्थानां व्याख्यानं प्रपञ्चयति।
जीवा संसारत्था णिव्वादा चेदणापगा दुविहा। उवओगलक्खणा वि य देहादेहप्पवीचारा।।१०९।।
जीवाः संसारस्था निर्वृत्ताः चेतनात्मका द्विविधाः। उपयोगलक्षणा अपि च देहादेहप्रवीचाराः।। १०९ ।।
जीवस्यरूपोद्देशोऽयम्।
जीवाः हि द्विविधाः, संसारस्था अशुद्धा निर्वृत्ताः शुद्धाश्च। ते खलूभयेऽपि चेतना-स्वभावाः, चेतनापरिणामलक्षणेनोपयोगेन लक्षणीयाः। तत्र संसारस्था देहप्रवीचाराः, निर्वृत्ता अदेहप्रवीचारा इति।।१०९।।
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अब जीवपदार्थका व्याख्यान विस्तारपूर्वक किया जाता है।
गाथा १०९
अन्वयार्थ:- [ जीवाः द्विविधाः] जीव दो प्रकारके हैं; [ संसारस्थाः निर्वृत्ताः ] संसारी और सिद्ध। [चेतनात्मका:] वे चेतनात्मक [-चेतनास्वभाववाले] [अपि च] तथा [उपयोगलक्षणाः] उपयोगलक्षणवाले हैं। [ देहादेहप्रवीचाराः] संसारी जीव देहमें वर्तनेवाले अर्थात् देहसहित हैं और सिद्ध जीव देहमें नहीं वर्तनेवाले अर्थात् देहरहित हैं।
टीका:- यह, जीवके स्वरूपका कथन है।
जीव दो प्रकारके हैं: - [१] संसारी अर्थात् अशुद्ध , और [२] सिद्ध अर्थात् शुद्ध। वे दोनों वास्तवमें चेतनास्वभाववाले हैं और चेतनापरिणामस्वरूप उपयोग द्वारा लक्षित होनेयोग्य [पहिचानेजानेयोग्य ] हैं। उनमें, संसारी जीव देहमें वर्तनेवाले अर्थात् देहसहित हैं और सिद्ध जीव देहमें नहीं वर्तनेवाले अर्थात् देहरहित हैं।। १०९।।
* चेतनाका परिणाम सो उपयोग। वह उपयोग जीवरूपी लक्ष्यका लक्षण है।
जीवो द्विविध-संसारी, सिद्धो; चेतनात्मक उभय छे; उपयोगलक्षण उभय; ओक सदेह, ओक अदेह छे। १०९ ।
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