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पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
जीवाजीवा भावा पुण्णं पावं च आसवं तेसिं। संवरणं णिज्जरणं बंधो मोक्खो य ते अट्ठा।। १०८।।
जीवाजीवौ भावो पुण्यं पापं चास्रवस्तयोः। संवरनिर्जरबंधा मोक्षश्च ते अर्थाः।। १०८।।
पदार्थानां नामस्वरूपाभिधानमेतत्।
जीवः, अजीवः, पुण्यं, पापं, आस्रवः, संवरः, निर्जरा, बंधः, मोक्ष इति नवपदार्थानां नामानि। तत्र चैतन्यलक्षणो जीवास्तिक एवेह जीवः। चैतन्याभावलक्षणोऽजीवः। स पञ्चधा पूर्वोक्त एवपुद्गलास्तिकः, धर्मास्तिकः, अधर्मास्तिकः, आकाशास्तिकः, कालद्रव्यञ्चेति। इमौ हि जीवाजीवौ पृथग्भूतास्तित्वनिर्वृत्तत्वेन
गाथा १०८
अन्वयार्थ:- [ जीवाजीवौ भावौ ] जीव और अजीव-दो भाव [अर्थात् मूल पदार्थ ] तथा [ तयोः ] उन दो के [पुण्यं ] पुण्य, [पापं च ] पाप, [आस्रवः ] आस्रव, [संवरनिर्जरबंध: ] संवर, निर्जरा, बन्ध [च ] और [ मोक्ष: ] मोक्ष-[ ते अर्थाः ] वह [ नव ] पदार्थ हैं।
टीका:- यह, पदार्थों के नाम और स्वरूपका कथन है।
जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्ष-इस प्रकार नव पदार्थों के नाम
हैं
उनमें, चैतन्य जिसका लक्षण है ऐसा जीवास्तिक ही [ –जीवास्तिकाय ही] यहाँ जीव है। चैतन्यका अभाव जिसका लक्षण है वह अजीव है; वह [अजीव ] पाँच प्रकारसे पहले कहा ही हैपुद्गलास्तिक, धर्मास्तिक, अधर्मास्तिक, आकाशास्तिक और कालद्रव्य। यह जीव और अजीव [ दोनों ] पृथक् अस्तित्व द्वारा निष्पन्न होनेसे भिन्न जिनके स्वभाव हैं ऐसे [ दो] मूल पदार्थ हैं ।
वे भाव-जीव अजीव, तद्गत पुण्य तेम ज पाप ने आसरव , संवर, निर्जरा, वळी बंध , मोक्ष-पदार्थ छ। १०८ ।
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