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पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवान श्रीकुन्दकुन्द
धर्माधर्माकाशान्यपृथग्भूतानि समानपरिमाणानि । पृथगुपलब्धिविशेषाणि कुवैत्येकत्वमन्यत्वम् ।। ९६ ।।
धर्माधर्मलोकाकाशानामवगाहवशादेकत्वेऽपि वस्तुत्वेनान्यत्वमत्रोक्तम्।
वस्तुतस्तु
धर्माधर्मलोकाकाशानि हि समानपरिमाणत्वात्सहावस्थानमात्रेणैवैकत्वभाञ्जि। व्यवहारेण गतिस्थित्यवगाहहेतुत्वरूपेण निश्चयेन विभक्तप्रदेशत्वरूपेण विशेषेण पृथगुपलभ्यमानेनान्यत्वभाञ्ज्येव भवतीति ।। ९६ ।।
-इति आकाशद्रव्यास्तिकायव्याख्यानं समाप्तम् ।
गाथा ९६
अन्वयार्थः- [ धर्माधर्माकाशानि ] धर्म, अधर्म और आकाश [ लोकाकाश ] [ समानपरिमाणानि ] समान परिमाणवाले [अपृथग्भूतानि ] अपृथग्भूत होनेसे तथा [ पृथगुपलब्धिविशेषाणि ] पृथक- उपलब्ध [ भिन्न-भिन्न ] विशेषवाले होनेसे [ एकत्वम् अन्यत्वम् ] एकत्व तथा अन्यत्वको [ कुर्वंति ] करते है।
टीका:- यहाँ, धर्म, अधर्म और लोकाकाशका अवगाहकी अपेक्षासे एकत्व होने पर भी वस्तुरूपसे अन्यत्व कहा गया है ।
धर्म, अधर्म और लोकाकाश समान परिमाणवाले होनेके कारण साथ रहने मात्रसे ही [ - मात्र एकक्षेत्रावगाहकी अपेक्षासे ही ] एकत्ववाले हैं; वस्तुतः तो [ १ ] व्यवहारसे गतिहेतुत्व, स्थितिहेतुत्व और अवगाहहेतुत्वरूप [ पृथक् - उपलब्ध विशेष द्वारा ] तथा [२] निश्चयसे विभक्तप्रदेशत्वरूप पृथक् - उपलब्ध `विशेष द्वारा, वे अन्यत्ववाले ही हैं।
भावार्थ:- धर्म, अधर्म और लोकाकाशका एकत्व तो मात्र एकक्षेत्रावगाहकी अपेक्षासे ही कहा जा सकता है; वस्तुरूपसे तो उन्हें अन्यत्व ही है, क्योंकि [१] उनके लक्षण गतिहेतुत्व, स्थितिहेतुत्व और अवगाहहेतुत्वरूप भिन्न-भिन्न हैं तथा [ २ ] उनके प्रदेश भी भिन्न-भिन्न हैं ।। ९६ ।।
इस प्रकार आकाशद्रव्यास्तिकायका व्याख्यान समाप्त हुआ।
१। विभक्त=भिन्न। [ धर्म, अधर्म और आकाशको भिन्नप्रदेशपना है । ]
२। विशेष=खासियत; विशिष्टता; विशेषता । [ व्यवहारसे तथा निश्चयसे धर्म, अधर्म और आकाशके विशेष पृथक् उपलब्ध हैं अर्थात् भिन्न-भिन्न दिखाई देते हैं । ]
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