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कहानजैनशास्त्रमाला]
षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
[ १४७
तम्हा धम्माधम्मा गमणट्ठिदिकारणाणि णागासं। इदि जिणवरेहिं भणिदं लोगसहावं सुणताणं ।। ९५ ।।
तस्माद्धर्माधर्मी गमनस्थितिकारणे नाकाशम। इति जिनवरैः भणितं लोकस्वभावं शृण्वताम्।।९५।।
आकाशस्य गतिस्थितिहेतुत्वनिरासव्याख्योपसंहारोऽयम्।
धर्माधर्मावेव गतिस्थितिकारणे नाकाशमिति।।९५।।
धम्माधम्मागासा अपुधब्भुदा समाणपरिमाणा। पुधगुवलद्धिविसेसा करिति एगत्तमण्णत्तं ।। ९६ ।।
होगी और पहले-पहले व्यवस्थापित हुआ लोकका अन्त उत्तरोत्तर वृद्धि पानेसे लोकका अन्त ही टूट जायेगा [ अर्थात् पहले-पहले निश्चित हुआ लोकका अन्त फिर-फिर आगे बढ़ते जानेसे लोकका अन्त ही नही बन सकेगा। इसलिये आकाशमें गति-स्थितिका हेतुत्व नहीं है।। ९४ ।।
गाथा ९५
अन्वयार्थ:- [ तस्मात् ] इसलिये [गमनस्थितिकारणे ] गति और स्थितिके कारण [धर्माधर्मों ] धर्म और अधर्म है, [न आकाशम् ] आकाश नहीं है। [इति] ऐसा [ लोकस्वभावं शृण्वताम् ] लोकस्वभावके श्रोताओंसे [ जिनवरैः भणितम् ] जिनवरोंने कहा है।
टीका:- यह, आकाशको गतिस्थितिहेतुत्व होनेके खण्डन सम्बन्धी कथनका उपसंहार है।
धर्म और अधर्म ही गति और स्थितिके कारण हैं, आकाश नहीं।। ९५ ।।
तेथी गतिस्थितिहेतुओ धर्माधरम छे, नभ नही; भाख्युं जिनोओ आम लोकस्वभावना श्रोता प्रति। ९५ ।
धर्माधरम-नभने समानप्रमाणयुत अपृथक्त्वथी, वळी भिन्नभिन्न विशेषथी, ओकत्व ने अन्यत्व छ। ९६।
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