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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates १४६] पंचास्तिकायसंग्रह [भगवानश्रीकुन्दकुन्द स्थितिपक्षोपन्यासोऽयम्। यतो गत्वा भगवंत: सिद्धाः लोकोपर्यवतिष्ठते, ततो गतिस्थितिहेतुत्वमाकाशे नास्तीति निश्चेतव्यम्। लोकालोकावच्छेदकौ धर्माधर्मावेव गतिस्थितिहेतु मंतव्याविति।।९३।। जदि हवदि गमणहेदू आगसं ठाणकारणं तेसिं। पसजदि अलोगहाणी लोगस्स च अंतपरिवड्डी।। ९४ ।। यदि भवति गमनहेतुराकाशं स्थानकारणं तेषाम्। प्रसजत्यलोकहानिर्लोकस्य चांतपरिवृद्धिः ।। ९४।। आकाशस्य गतिस्थितिहेतुत्वाभावे हेतूपन्यासोऽयम्। नाकाशं गतिस्थितिहेतुः लोकालोकसीमव्यवस्थायास्तथोपपत्तेः। यदि गति- स्थित्योराकाशमेव निमित्तमिष्येत्, तदा तस्य सर्वत्र सद्भावाज्जीवपुद्गलानां गतिस्थित्योर्निः सीमत्वात्प्रतिक्षणमलोको हीयते, पूर्वं पूर्वं व्यवस्थाप्यमानश्चांतो लोकस्योत्तरोत्तरपरिवृद्ध्या विघटते। ततो न तत्र तद्धेतुरिति।। ९४।। - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - गाथा ९४ अन्वयार्थ:- [ यदि ] यदि [आकाशं] आकाश [ तेषाम् ] जीव-पुद्गलोंको [ गमनहेतुः ] गतिहेतु और [ स्थानकारणं] स्थितिहेतु [भवति] हो तो [अलोकहानि:] अलोककी हानिका [च ] और [ लोकस्य अंतपरिवृद्धि ] लोकके अन्तकी वृद्धिका [ प्रसजति] प्रसंग आए। टीका:- यहाँ, आकाशको गतिस्थितिहेतुत्वका अभाव होने सम्बन्धी हेतु उपस्थित किया गया है। आकाश गति-स्थितिका हेतु नहीं है, क्योंकि लोक और अलोककी सीमाकी व्यवस्था इसी प्रकार बन सकती है। यदि आकाशको ही गति-स्थितिका निमित्त माना जाए, तो आकाशको सद्भाव सर्वत्र होनेके कारण जीव-पुद्गलोंकी गतिस्थितिकी कोई सीमा नहीं रहनेसे प्रतिक्षण अलोककी हानि नभ होय जो गतिहेतु ने स्थितिहेतु पुद्गल-जीवने। तो हानि थाय अलोकनी, लोकान्त पामे वृद्धिने। ९४ । Please inform us of any errors on [email protected]
SR No.008395
Book TitlePunchaastikaai Sangrah
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages293
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size3 MB
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