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षड्द्रव्य - पंचास्तिकायवर्णन
कहानजैनशास्त्रमाला ]
[ १४५
यदि खल्वाकाशमवगाहिनामवगाहहेतुरिव गतिस्थितिमतां गतिस्थितिहेतुरपि स्यात्, तदा सर्वोत्कृष्टस्वाभाविकोर्ध्वगतिपरिणता भगवंतः सिद्धा बहिरङ्गांतरङ्गसाधनसामग्र्यां सत्यामपि कृतस्तत्राकाशे तिष्ठंति इति ।। ९२ ।।
जम्हा उवरिट्ठाणं सिद्धाणं जिणवरेहिं पण्णत्तं ।
तम्हा गमणद्वाणं आयासे जाण णत्थि त्ति ।। ९३ ।।
यस्मादुपरिस्थानं सिद्धानां जिनवरैः प्रज्ञप्तम्। तस्माद्गमनस्थानमाकाशे जानीहि नास्तीति ।। ९३ ।।
出
यदि आकाश, जिस प्रकार अवगाहवालोंको अवगाहहेतु है उसी प्रकार, गतिस्थितिवालोंको गति-स्थितिहेतु भी हो, तो सर्वोत्कृष्ट स्वाभाविक ऊर्ध्वगतिसे परिणत सिद्धभगवन्त, बहिरंग-अंतरंग साधनरूप सामग्री होने पर भी क्यों [ - किस कारण ] उसमें - आकाशमें- स्थिर हों ? ९२ ।।
गाथा ९३
अन्वयार्थ:- [ यस्मात् ] जिससे [ जिनवरै: ] जिनवरोंने [ सिद्धानाम् ] सिद्धोंकी [ उपरिस्थानं ] लोकके उपर स्थिति [ प्रज्ञप्तम् ] कही है, [तस्मात् ] इसलिये [ गमनस्थानम् आकाशे न अस्ति ] गति-स्थिति आकाशमें नहीं होती [ अर्थात् गतिस्थितिहेतुत्व आकाशमें नहीं है ] [ इति जानीहि ] ऐसा जानो ।
टीका:- [ गतिपक्ष सम्बन्धी कथन करनेके पश्चात् ] यह, स्थितिपक्ष सम्बन्धी कथन है।
जिससे सिद्धभगवन्त गमन करके लोकके उपर स्थिर होते हैं [ अर्थात् लोकके उपर गतिपूर्वक स्थिति करते हैं ], उससे गतिस्थितिहेतुत्व आकाशमें नहीं है ऐसा निश्चय करना; लोक और अलोकका विभाग करनेवाले धर्म तथा अधर्मको ही गति तथा स्थितिके हेतु मानना ।। ९३।।
* अवगाह=लीन होना; मज्जित होना; अवकाश पाना ।
भाखी जिनोओ लोकना अग्रे स्थिति सिद्धो तणी, ते कारणे जाणो गतिस्थिति आभमां होती नथी । ९३ ।
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