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कहानजैनशास्त्रमाला]
षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
विजदि जेसिं गमणं ठाणं पुण तेसिमेव संभवदि। ते सगपरिणामेहिं दु गमणं ठाणं च कुव्वंति।।८९।। विद्यते येषां गमनं स्थानं पुनस्तेषामेव संभवति। ते स्वकपरिणामैस्तु गमनं स्थानं च कुर्वन्ति।।८९।।
धर्माधर्मयोरौदासीन्ये हेतूपन्यासोऽयम्।
धर्मः किल न जीवपुद्गलानां कदाचिद्गतिहेतुत्वमभ्यस्यति, न कदाचित्स्थितिहेतुत्वमधर्मः। तौ हि परेषां गतिस्थित्योर्यदि मुख्यहेतू स्यातां तदा येषां गतिस्तेषां गतिरेव न स्थितिः, येषां स्थितिस्तेषां स्थितिरेव न गतिः। तत एकेषामपि गतिस्थितिदर्शनादनुमीयते न तौ तयोर्मुख्यहेतू। किं तु व्यवहारनयव्यवस्थापितौ उदासीनौ। कथमेवं गतिस्थितिमतां पदार्थोनां गतिस्थिती भवत इति
गाथा ८९
अन्वयार्थ:- [ येषां गमनं विद्यते] [धर्म-अधर्म गति-स्थितिके मुख्य हेतु नहीं हैं, क्योंकि] जिन्हें गति होती है [ तेषाम् एव पुनः स्थानं संभवति] उन्हींको फिर स्थिति होती है [ और जिन्हें स्थिति होती है उन्हींको फिर गति होती है। [ ते तु] वे [गतिस्थितिमान पदार्थ ] तो [स्वकपरिणामैः ] अपने परिणामोंसे [ गमनं स्थानं च ] गति और स्थिति [ कुर्वन्ति ] करते हैं।
टीका:- यह, धर्म और अधर्मकी उदासीनताके सम्बन्धमें हेतु कहा गया है।
वास्तवमें [ निश्चयसे ] धर्म जीव-पुद्गलोंको कभी गतिहेतु नहीं होता, अधर्म कभी स्थितिहेतु नहीं होता; क्योंकि वे परको गतिस्थितिके यदि मुख्य हेतु [ निश्चयहेतु] हों, तो जिन्हें गति हो उन्हें गति ही रहना चाहिये, स्थिति नहीं होना चाहिये, और जिन्हें स्थिति हो उन्हें स्थिति ही रहना चाहिये, गति नहीं होना चाहिये। किन्तु एकको ही [-उसी एक पदार्थको ] गति और स्थिति देखनेमे आती है; इसलिये अनुमान हो सकता है कि वे [धर्म-अधर्म ] गति-स्थितिके मुख्य हेतु नहीं हैं, किन्तु व्यवहारनयस्थापित [ व्यवहारनय द्वारा स्थापित – कथित ] उदासीन हेतु हैं।
रे! जेमने गति होय छे, तेओ ज वळी स्थिर थाय छे; ते सर्व निज परिणामथी ज करे गतिस्थितिभावने। ८९ ।
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