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पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
गतिपरिणामस्य हेतुकर्तृत्वम्। किंतु सलिल-मिव मत्स्यानां जीवपुद्गलानामाश्रयकारणमात्रत्वेनोदासीन एवासौ गतेः प्रसरो भवति। अपि च यथा गतिपूर्वस्थितिपरिणतस्तुङ्गोऽश्ववारस्य स्थितिपरिणामस्य हेतुकर्तावलोक्यते न तथाऽधर्मः। स खलु निष्क्रियत्वात् न कदाचिदपि गतिपूर्वस्थितिपरिणाममेवापद्यते। कुतोऽस्य सहस्थायित्वेन परेषां गतिपूर्वस्थितिपरिणामस्य हेतुकर्तृत्वम्। किं तु पृथिवीवत्तुरङ्गस्य जीवपुद्गलानामाश्रयकारणमात्रत्वेनोदासीन एवासौ गतिपूर्वस्थितेः प्रसरो भवतीति।।८८।।
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होनेसे कभी गतिपरिणामको ही प्राप्त नहीं होता; तो फिर उसे [परके] 'सहकारीके रूपमें परके गतिपरिणामका हेतुकतृत्व कहाँसे होगा? [ नहीं हो सकता।] किन्तु जिस प्रकार पानी मछलियोंका [गतिपरिणाममें ] मात्र आश्रयरूप कारणके रूपमें गतिका उदासीन ही प्रसारक है, उसी प्रकार धर्म जीव-पुद्गलोंकी [गतिपरिणाममें ] मात्र आश्रयरूप कारणके रूपमें गतिका उदासीन ही प्रसारक [ अर्थात् गतिप्रसारका उदासीन ही निमित्त ] है।
और [ अधर्मास्तिकायके सम्बन्धमें भी ऐसा है कि] - जिस प्रकार गतिपूर्वकस्थितिपरिणत अश्व सवारके [गतिपूर्वक ] स्थितिपरिणामका हेतुकर्ता दिखाई देता है, उसी प्रकार अधर्म [ जीवपुद्गलोंके गतिपूर्वक स्थितिपरिणामका हेतुकर्ता] नही है। वह [अधर्म ] वास्तवमें निष्क्रिय होनेसे कभी गतिपूर्वक स्थितिपरिणामको ही प्राप्त नहीं होता; तो फिर उसे [परके ] सहस्थायीके रूपमें गतिपूर्वक स्थितिपरिणामका हेतुकतृत्व कहाँसे होगा ? [ नहीं हो सकता।] किन्तु जिस प्रकार पृथ्वी अश्वको [गतिपूर्वक स्थितिपरिणाममें ] मात्र आश्रयरूप कारणके रूपमें गतिपूर्वक स्थितिकी उदासीन ही प्रसारक है, उसी प्रकार अधर्म जीव-पुद्गलोंको [गतिपूर्वक स्थितिपरिणाममें ] मात्र आश्रयरूप कारणके रूपमें गतिपूर्वक स्थितिका उदासीन ही प्रसारक [अर्थात् गतिपूर्वक-स्थितिप्रसारका उदासीन ही निमित्त ] है।। ८८ ।।
१। सहकारी साथमें कार्य करनेवाला अर्थात् साथमें गति करनेवाला। ध्वजाके साथ पवन भी गति करता है इसलिये यहाँ पवनको [ध्वजाके ] सहकारीके रूपमें हेतुकर्ता कहा है; और जीव-पुद्गलोंके साथ धर्मास्तिकाय गमन न करके [अर्थात् सहकारी न बनकर], मात्र उन्हें [गतिमें] आश्रयरूप कारण बनता है इसलिये धर्मास्तिकायको उदासीन निमित्त कहा है। पवनको हेतुकर्ता कहा उसका यह अर्थ कभी नहीं समझना कि पवन ध्वजाओंको गतिपरिणाम कराता होगा। उदासीन निमित्त हो या हेतुकर्ता हो- दोनों परमें अकिंचित्कर हैं। उनमें मात्र उपरोक्तानुसार ही अन्तर है। अब अगली गाथाकी टीकामें आचार्यदेव स्वयं ही कहेंगे कि 'वास्तवमें समस्त गतिस्थितिमान पदार्थ अपने परिणामोंसे ही निश्चयसे गतिस्थिति करते है। इसलिये ध्वजा, सवार इत्यादि सब, अपने परिणामोंसे ही गतिस्थिति करते है, उसमें धर्म तथा पवन, और अधर्म तथा अश्व
अविशेषरूपसे अकिंचित्कर हैं ऐसा निर्णय करना।] २। सहस्थायी साथमें स्थिति [ स्थिरता] करनेवाला। [ अश्व सवारके साथ स्थिति करता है. इसलिये यहाँ
अश्वको सवारके सहस्थायीके रूपमें सवारके स्थितिपरिणामका हेतुकर्ता कहा है। अधर्मास्तिकाय तो गतिपूर्वक स्थितिको प्राप्त होने वाले जीव-पुद्गलोंके साथ स्थिति नहीं करता, पहलेही स्थित है; इस प्रकार वह सहस्थायी न होनेसे जीव-पुदगलोंके गतिपूर्वक स्थितिपरिणामका हेतुकर्ता नहीं है।]
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