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कहानजैनशास्त्रमाला]
षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
[ १३९
ण य गच्छदि धम्मत्थी गमणं ण करेदि अण्णदवियस्स। हवदि गदि स्स प्पसरो जीवाणं पुग्गलाणं च।। ८८।।
न च गच्छति धर्मास्तिको गमनं न करोत्यन्यद्रव्यस्य। भवति गते: स: प्रसरो जीवानां पुद्गलानां च।।८८।।
धर्माधर्मयोर्गतिस्थितिहेतुत्वेऽप्यंतौदासीन्याख्यापनमेतत्।
यथा हि गतिपरिणतः प्रभञ्जनो वैजयंतीनां गतिपरिणामस्य हेतुकर्ताऽवलोक्यते न तथा धर्मः। स खलु निष्क्रियत्वात् न कदाचिदपि गतिपरिणाममेवापद्यते। कुतोऽस्य सहकारित्वेन परेषां
गाथा ८८
अन्वयार्थ:- [धर्मास्तिक:] धर्मास्तिकाय [न गच्छति] गमन नहीं करता [च] और [अन्यद्रव्यस्य ] अन्य द्रव्यको [गमनं न करोति ] गमन नहीं कराता; [ सः ] वह, [जीवानां पुद्गलानां च] जीवों तथा पुद्गलोंको [गतिपरिणाममें आश्रयमात्ररूप होनेसे ] [ गते: प्रसरः] गतिका उदासीन प्रसारक [ अर्थात् गतिप्रसारमें उदासीन निमित्तभूत ] [ भवति ] है।
टीका:- धर्म और अधर्म गति और स्थितिके हेतु होने पर भी वे अत्यन्त उदासीन हैं ऐसा यहाँ कथन है।
जिस प्रकार गतिपरिणत पवन ध्वजाओंके गतिपरिणामका हेतुकर्ता दिखाई देता है, उसी प्रकार धर्म [ जीव-पुद्गलोंके गतिपरिणामका हेतुकर्ता ] नहीं है। वह [धर्म ] वास्तवमें निष्क्रिय
धर्मास्ति गमन करे नही, न करावतो परद्रव्यने; जीव-पुद्गलोना गतिप्रसार तणो उदासीन हेतु छ। ८८ ।
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