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पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
धर्माधर्मसद्भावे हेतूपन्यासोऽयम्
धर्माधर्मों विद्येते। लोकालोकविभागान्यथानुपपत्तेः। जीवादिसर्वपदार्थानामेकत्र वृत्तिरूपो लोकः। शुद्धैकाकाशवृत्तिरूपोऽलोकः। तत्र जीवपुद्गलौ स्वरसत एव गतितत्पूर्व-स्थितिपरिणामापन्नौ। तयोर्यदि गतिपरिणामं तत्पूर्वस्थितिपरिणामं वा स्वयमनुभवतोर्बहिरङ्गहेतू धर्माधर्मो न भवेताम्, तदा तयोर्निरर्गलगतिस्थितिपरिणामत्वादलोकेऽपि वृत्तिः केन वार्येत। ततो न लोकालोकविभाग: सिध्येत। धर्माधर्मयोस्तु जीवपुद्गलयोर्गतितत्पूर्वस्थित्योर्बहिरङ्गहेतुत्वेन सद्भावेऽभ्युपगम्यमाने लोकालोकविभागो जायत इति। किञ्च धर्माधर्मो द्वावपि परस्परं पृथग्भूतास्तित्वनिवृत्तत्वाद्विभक्तौ। एकक्षेत्रावगाढत्वादभिक्तौ।।
निष्क्रियत्वेन
सकललोकवर्तिनोजीवपुद्गलयोर्गतिस्थित्युपग्रहकरणाल्लोकमात्राविति।। ८७।।
टीकाः- यह, धर्म और अधर्मके सद्भावकी सिद्धि लिये हेतु दर्शाया गया है।
धर्म और अधर्म विद्यमान है, क्योंकि लोक और अलोकका विभाग अन्यथा नहीं बन सकता। जीवादि सर्व पदार्थों के एकत्र-अस्तित्वरूप लोक है; शुद्ध एक आकाशके अस्तित्वरूप अलोक हैं। वहाँ. जीव और पदगल स्वरससे ही [स्वभावसे ही] गतिपरिणामको तथा गतिपर्वक स्थितिपरिणामको प्राप्त होते हैं। यदि गतिपरिणाम अथवा गतिपर्वक स्थितिपरिणामका स्वयं अनभव करनेवाले उन जीव-पदगलको बहिरंग हेत धर्म और अधर्म न हो. तो जीव-पदगलके *निरर्गल गतिपरिणाम और स्थितिपरिणाम होनेसे अलोकमें भी उनका [जीव -पुद्गलका] होना किससे निवारा जा सकता है ? [ किसीसे नहीं निवारा जा सकता।] इसलिये लोक और अलोकका विभाग सिद्ध नहीं होता। परन्तु यदि जीव-पुद्गलकी गतिके और गतिपूर्वक स्थितिके बहिरंग हेतुओंके रूपमें धर्म और अधर्मका सद्भाव स्वीकार किया जाये तो लोक और अलोकका विभाग [ सिद्ध ] होता है । [इसलिये धर्म और अधर्म विद्यमान है।] और [उनके सम्बन्धमें विशेष विवरण यह है कि], धर्म और अधर्म दोनों परस्पर पृथग्भूत अस्तित्वसे निष्पन्न होनेसे विभक्त [भिन्न] हैं; एकक्षेत्रावगाही होनेसे अविभक्त [अभिन्न ] हैं; समस्त लोकमें विद्यमान जीव –पुद्गलोंको गतिस्थितिमें निष्क्रियरूपसे अनुग्रह करते हैं इसलिये [ –निमित्तरूप होते हैं इसलिये ] लोकप्रमाण हैं।। ८७।।
* निरर्गल=निरंकुश; अमर्यादित।
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