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कहानजैनशास्त्रमाला ]
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षड्द्रव्य - पंचास्तिकायवर्णन
अधर्मस्वरूपाख्यानमेतत् ।
यथा धर्म: प्रज्ञापितस्तथाधर्मोपि प्रज्ञापनीयः । अयं तु विशेषः । स गतिक्रियायुक्तानामुदकवत्कारणभूत; एषः पुनः स्थितिक्रियायुक्तानां पृथिवीवत्कारणभूतः । यथा पृथिवी स्वयं पूर्वमेव तिष्ठंती परमस्थापयंती च स्वयेव तिष्ठतामश्वादीना मुदासीना- विनाभूतसहायकारणमात्रत्वेन स्थितिमनुगृह्णाति तथाऽधर्माऽपि स्वयं पूर्वमेव तिष्ठन् परमस्थापयंश्च स्वयमेव तिष्ठतां जीवपुद्गलानामुदासीनाविनाभूतसहायकारणमात्रत्वेन स्थितिमनुगृह्णातीति।।८६।।
जादो अलोगलोगो जेसिं सब्भावदो य गमणठिदी । दोविय मया विभत्ता अविभत्ता लोयमेत्ता य ।। ८७ ।।
जातमलोकलोकं ययोः सद्भावतश्च गमनस्थिती।
द्वावपि च मतौ विभक्तावविभक्तौ लोकमात्रौ च ।। ८७ ।।
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टीका:- यह, अधर्मके स्वरूपका कथन है ।
जिस प्रकार धर्मका प्रज्ञापन किया गया, उसी प्रकार अधर्मका भी प्रज्ञापन करने योग्य है। परन्तु यह [ निम्नोक्तानुसार ] अन्तर है: वह [-धर्मास्तिकाय ] गतिक्रियायुक्तको पानीकी भाँति कारणभूत है और यह [ अधर्मास्तिकाय ] स्थितिक्रियायुक्तको पृथ्वीकी भाँति कारणभूत है । जिस प्रकार पृथ्वी स्वयं पहलेसे ही स्थितिरूप [ - स्थिर ] वर्तती हुई तथा परको स्थिति [ - स्थिरता ] नहीं कराती हुई, स्वयमेव स्थितिरूपसे परिणमित होते हुए अश्वादिकको उदासीन अविनाभावी सहायरूप कारणमात्रके रूपमें स्थितिमें अनुग्रह करती है, उसी प्रकार अधर्म [ अधर्मास्तिकाय ] भी स्वयं पहलेसे ही स्थितिरूपसे वर्तता हुआ और परको स्थिति नहीं कराता हुआ, स्वयमेव स्थितिरूप परिणमित होते हुए जीव- पुद्गलोंको उदासीन अविनाभावी सहायरूप कारणमात्रके रूपमें स्थितिमें अनुग्रह करता है ।। ८६ ।
गाथा ८७
अन्वयार्थः- [ गमनस्थिती ] [ जीव- पुद्गलकी] गति-स्थिति [च] तथा [ अलोकलोकं ] अलोक और लोकका विभाग, [ ययोः सद्भावतः ] उन दो द्रव्योंके सद्भावसे [ जातम् ] होता है। [च] और [ द्वौ अपि ] वे दोनों [ विभक्तौ ] विभक्त, [ अविभक्तौ ] अविभक्त [ च ] और [ लोकमात्रौ ] लोकप्रमाण [ मतौ ] कहे गये हैं।
धर्माधरम होवाथी लोक- अलोक ने स्थितिगति बने; ते उभय भिन्न-अभिन्न छे ने सकळलोकप्रमाण छे । ८७ ।
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