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कहानजैनशास्त्रमाला]
षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
[१३५
सेनाविनाभूतसहायमात्रत्वात्कारणभूतः। स्वास्तित्वमात्रनिवृत्तत्वात् स्वयमकार्य इति।।८४।।
उदयं जह मच्छाणं गमणाणुग्गहकरं हवदि लोए। त्ह जीवपुग्गलोणं धम्मं दव्वं वियाणाहि।। ८५।।
उदकं यथा मत्स्यानां गमनानुग्रहकरं भवति लोके। त्था जीवपुद्गलानां धर्मद्रव्यं विजानीहि।। ८५।।
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तथापि स्वरूपसे च्युत नहीं होता इसलिये नित्य है; गतिक्रियापरिणतको [ गतिक्रियारूपसे परिणमित होनेमें जीव-पुद्गलोंको ] 'उदासीन अविनाभावी सहायमात्र होनेसे [गतिक्रियापरिणतको ] कारणभूत है; अपने अस्तित्वमात्रसे निष्पन्न होनेके कारण स्वयं अकार्य है [अर्थात् स्वयंसिद्ध होनेके कारण किसी अन्यसे उत्पन्न नहीं हुआ है इसलिये किसी अन्य कारणके कार्यरूप नहीं है]।। ८४।।
गाथा ८५
अन्वयार्थ:- [ यथा ] जिस प्रकार[ लोके] जगतमें [ उदकं ] पानी [ मत्स्यानां] मछलियोंको [गमनानुग्रहकरं भवति] गमनमें अनुग्रह करता है, [ तथा] उसी प्रकार [धर्मद्रव्यं] धर्मद्रव्य [ जीवपुद्गलानां] जीव-पुद्गलोंको गमनमें अनुग्रह करता है [-निमित्तभूत होता है] ऐसा [विजानीहि ] जानो।
१। जिस प्रकार सिद्धभगवान, उदासीन होने पर भी, सिद्धगुणोंके अनुरागरूपसे परिणमत भव्य जीवोंको सिद्धगतिके सहकारी कारणभूत है, उसी प्रकार धर्म भी, उदासीन होने पर भी, अपने-अपने भावोंसे ही गतिरूप परिणमित जीव-पुद्गलोंको गतिका सहकारी कारण है।
२। यदि कोई एक, किसी दूसरेके बिना न हो, तो पहलेको दूसरेका अविनाभावी कहा जाता है। यहाँ धर्मद्रव्यको 'गतिक्रियापरिणतका अविनाभावी सहायमात्र' कहा है। उसका अर्थ है कि - गतिक्रियापरिणत जीव-पुद्गल न हो तो वहाँ धर्मद्रव्य उन्हें सहायमात्ररूप भी नहीं है; जीव-पुदगल स्वयं गतिक्रियारूपसे परिणमित होते हों तभी धर्मद्रव्य उन्हें उदासीन सहायमात्ररूप [ निमित्तमात्ररूप] है, अन्यथा नहीं।
ज्यम जगतमां जळ मीनने अनुग्रह करे छे गमनमां, त्यम धर्म पण अनुग्रह करे जीव-पुद्गलोने गमनमां। ८५।
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