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पंचास्तिकायसंग्रह
अगुरुगलघुगेहिं सया तेहिं अनंतेहिं परिणदं णिच्चं । गदिकिरियाजुत्ताणं कारणभूदं सयमकज्जुं । । ८४ ।।
अगुरुकलघुकैः सदा तैः अनंतैः परिणतः नित्यः । गतिक्रियायुक्तानां कारणभूतः स्वयमकार्यः।। ८४।।
धर्मस्यैवावशिष्टस्वरूपाख्यानमेतत्।
अपि च धर्मः अगुरुलघुभिर्गुणैरगुरुलघुत्वाभिधानस्य स्वरूपप्रतिष्ठत्वनिबंधनस्य स्वभावस्याविभागपरिच्छेदैः प्रतिसमयसंभवत्षट्स्थानपतितवृद्धिहानिभिरनंतैः सदा परिणतत्वादुत्पादव्ययवत्त्वेऽपि स्वरूपादप्रच्यवनान्नित्यः। गतिक्रियापरिणतानामुदा
गाथा ८४
[ भगवान श्रीकुन्दकुन्द
अन्वयार्थ:- [ अनंतः तैः अगुरुकलघुकैः ] वह [ धर्मास्तिकाय ] अनन्त ऐसे जो अगुरुलघु [ गुण, अंश ] उन-रूप [ सदा परिणतः ] सदैव परिणमित होता है, [ नित्यः ] नित्य है, [ गतिक्रियायुक्तानां ] गतिक्रियायुक्तको [ कारणभूतः ] कारणभूत [ निमित्तरूप ] है और [ स्वयम् अकार्यः ] स्वयं अकार्य है।
टीका:- यह, धर्मके ही शेष स्वरूपका कथन है।
पुनश्च, धर्म [धर्मास्तिकाय ] अगुरुलघु 'गुणोंरूपसे अर्थात् अगुरुलघुत्व नामका जो स्वरूपप्रतिष्ठत्वके कारणभूत स्वभाव उसके अविभाग परिच्छेदोंरूपसे जो कि प्रतिसमय होनेवाली `षट्स्थानपतित वृद्धिहानिवाले अनन्त हैं उनके रूपसे सदा परिणमित होनेसे उत्पादव्ययवाला है,
१। गुण=अंश; अविभाग परिच्छेद [ सर्व द्रव्योंकी भाँति धर्मास्तिकायमें अगुरुलघुत्व नामका स्वभाव है। वह स्वभाव धर्मास्तिकायको स्वरूपप्रतिष्ठत्वके [ अर्थात् स्वरूपमें रहनेके ] कारणभूत है। उसके अविभाग परिच्छेदोंको यहाँ अगुरुलघु गुण [ – अंश ] कहे हैं।
२। षट्स्थानपतित वृद्धिहानि = छह स्थानमें समावेश पानेवाली वृद्धिहानि, षट्गुण वृद्धिहानि । [ अगुरुलघुत्वस्वभावके अनन्त अंशोंमें स्वभावसे ही प्रतिसमय षट्गुण वृद्धिहानि होती रहती है । ]
जे अगुरुलधुक अनन्त ते रूप सर्वदा ओ परिणमे,
छे नित्य, आप अकार्य छे, गतिपरिणमितने हेतु छे। ८४ ।
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