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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates १९२] पंचास्तिकायसंग्रह [भगवानश्रीकुन्दकुन्द निश्चयेन सुखदुःखरूपात्मपरिणामानां व्यवहारेणेष्टा-निष्टविषयाणां निमित्तमात्रत्वात्पुद्गलकाया: सुखदुःखरूपं फलं प्रयच्छन्ति। जीवाश्च निश्चयेन निमित्तमात्रभुतद्रव्यकर्मनिवर्तितसुखदुःखरूपात्मपरिणामानां व्यवहारेण निमित्तमात्र होनेकी अपेक्षासे निश्चयसे, और ईष्टानिष्ट विषयोंके निमित्तमात्र होनेकी अपेक्षासे *व्यवहारसे सुखदुःखरूप फल देते हैं; तथा जीव निमित्तमात्रभूत द्रव्यकर्मसे निष्पन्न होनेवाले सुखदुःखरूप आत्मपरिणामोंको भोक्ता होनेकी अपेक्षासे निश्चयसे, और [ निमित्तमात्रभूत ] द्रव्यकर्मके उदयसे सम्पादित ईष्टानिष्ट विषयोंके भोक्ता होनेकी अपेक्षासे व्यवहारसे , उसप्रकारका [ सुखदुःखरूप] फल भोगते हैं [ अर्थात् निश्चयसे सुखदुःखपरिणामरूप और व्यवहारसे ईष्टानिष्टा विषयरूप फल भोगते हैं। * [१] सुखदुःखपरिणामोंमें तथा [२] ईष्टानिष्ट विषयोंके संयोगमें शुभाशुभ कर्म निमित्तभूत होते हैं, इसलिये उन कर्मोको उनके निमित्तमात्रपनेकी अपेक्षासे ही “[१] सुखदुःखपरिणामरूप [फल] तथा [२] ईष्टानिष्ट विषयरूप फल ‘देनेवाला' '' [ उपचारसे] कहा जा सकता है। अब, [१] सुखदुःखपरिणाम तो जीवकी अपनी ही पर्यायरूप होनेसे जीव सुखदुःखपरिणामको तो निश्चयसे' भोगता हैं, और इसलिये सुखदुःखपरिणाममें निमित्तभूत वर्तते हुए शुभाशुभ कर्मोंमें भी [-जिन्हें “सुखदुःखपरिणामरूप फल देनेवाला'' कहा था उनमें भी] उस अपेक्षासे ऐसा कहा जा सकता है कि "वे जीवको ‘निश्चयसे' सुखदुःखपरिणामरूप फल देते हैं;' तथा [२] ईष्टानिष्ट विषय तो जीवसे बिलकुल भिन्न होनेसे जीव ईष्टानिष्ट विषयोंको तो 'व्यवहारसे' भोगता हैं, और इसलिये ईष्टानिष्ट विषयोंमें निमित्तभूत वर्तते हुए शुभाशुभ कर्मोमें भी [-जिन्हें ''ईष्टानिष्ट विषयरूप फल देनेवाला '' कहा था उनमें भी ] उस अपेक्षासे ऐसा कहा जा सकता है कि ''वे जीवको ‘व्यवहारसे' ईष्टानिष्ट विषयरूप फल देते हैं।'' यहाँ [ टीकाके दूसरे पैरेमें ] जो निश्चय' और 'व्यवहार' ऐसे दो भंग किये हैं वे मात्र इतना भेद सूचित करनेके लिये ही किये हैं कि 'कर्मनिमित्तक सुखदुःखपरिणाम जीवमें होते हैं और कर्मनिमित्तक ईष्टानिष्ट विषय जीवसे बिल्कुल भिन्न हैं।' परन्तु यहाँ कहे हुए निश्चयरूपसे भंगसे ऐसा नहीं समझना चाहिये कि 'पौद्गलिक कर्म जीवको वास्तवमें फल देता है और जीव वास्तवमें कर्मके दिये हुए फलको भोगता है।' परमार्थत: कोई द्रव्य किसी अन्य द्रव्यको फल नहीं दे सकता और कोई द्रव्य किसी अन्य द्रव्यके पाससे फल प्राप्त करके भोग नहीं सकता। यदि परमार्थतः कोई द्रव्य अन्य द्रव्यको फल दे और वह अन्य द्रव्य उसे भोगे तो दोनों द्रव्य एक हो जायें। यहाँ यह ध्यान रखना खास आवश्यक है कि टीकाके पहले पैरेमें सम्पूर्ण गाथाके कथनका सार कहते हुए श्री टीकाकार आचार्यदेव स्वयं ही जीवको कर्म द्वारा दिये गये फलका उपभोग व्यवहारसे ही कहा है, निश्चयसे नहीं। * सुखदुःखके दो अर्थ होते है: [१] सुखदुःखपरिणाम, और [२] ईष्टानिष्ट विषय। जहाँ ‘निश्चयसे' कहा है वहाँ 'सुखदुःखपरिणाम' ऐसा अर्थ समझना चाहिये और जहाँ 'व्यवहारसे कहा है वहाँ 'ईष्टानिष्ट विषय ऐसा अर्थ समझना चहिये। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008395
Book TitlePunchaastikaai Sangrah
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages293
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size3 MB
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