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षड्द्रव्य - पंचास्तिकायवर्णन
कहानजैनशास्त्रमाला ]
[ १११
निश्चयेन जीवकर्मणोश्चैककर्तृत्वेऽपि व्यवहारेण कर्मदत्तफलोपलंभो जीवस्य न विरुध्यत इत्यत्रोक्तम्।
जीवा हि मोहरागद्वेषस्निग्धत्वात्पुद्गलस्कंधाश्च स्वभावस्निग्धत्वाद्वंधावस्थायां परमाणुद्वंद्वानीवान्योन्यावगाहग्रहणप्रतिबद्धत्वेनावतिष्ठते । यदा तु ते परस्परं वियुज्यंते, तदोदित - प्रच्यवमाना
गाथा ६७
अन्वयार्थः- [ जीवाः पुद्गलकायाः ] जीव और पुद्गलकाय [ अन्योन्यावगाढ- ग्रहणप्रतिबद्धाः ] [विशिष्ट प्रकारसे ] अन्योन्य - अवगाहके ग्रहण द्वारा [ परस्पर ] बद्ध हैं; [ काले वियुज्यमानाः ] कालमें पृथक होने पर [ सुखदुःखं ददति भुञ्जन्ति ] सुखदुःख देते हैं और भोगते हैं [ अर्थात् पुद्गलकाय सुखदुःख देते हैं और जीव भोगते हैं ।।
टीका:- निश्चयसे जीव और कर्मको एकका [ निज-निज रूपका ही ] कर्तृत्व होने पर भी, व्यवहारसे जीवको कर्मे द्वारा दिये गये फलका उपभोग विरोधको प्राप्त नहीं होता [ अर्थात् 'कर्म जीवको फल देता है और जीव उसे भोगता है' यह बात भी व्यवहारसे घटित होती है ] ऐसा यहाँ कहा है।
जीव मोहरागद्वेष द्वारा स्निग्ध होनेके कारण तथा पुद्गलस्कंध स्वभावसे स्निग्ध होनेके कारण, [वे ] बन्ध-अवस्थामें— *परमाणुद्वंद्वोंकी भाँति - [ विशिष्ट प्रकारसे ] अन्योन्य - अवगाहके ग्रहण द्वारा बद्धरूपसे रहते हैं। जब वे परस्पर पृथक होते हैं तब [ पुद्गलस्कन्ध निम्नानुसार फल देते हैं और जीव उसे भोगते हैं ]—– उदय पाकर खिर जानेवाले पुद्गलकाय सुखदुःखरूप आत्मपरिणामोंके
* परमाणुद्वंद्व= दो परमाणुओंका जोड़ा; दो परमाणुओंसे निर्मित स्कंध; द्वि-अणुक स्कंध ।
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