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पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
अनन्यकृतत्वं कर्मणां वैचित्र्यस्यात्रोक्तम्।
यथा हि स्वयोग्यचंद्रार्कप्रभोपलंभे। संध्याभेंद्रचापपरिवेषप्रभृतिभिर्बहुभिः प्रकारैः पुद्गलस्कंधविकल्पाः कंत्रतरनिरपेक्षा एवोत्पद्यंते, तथा स्वयोग्यजीवपरिणामोपलंभे ज्ञानावरणप्रभृतिभिर्बहुभिः प्रकारैः कर्माण्यपि कंत्रतरनिरपेक्षाण्येवोत्पद्यते इति।। ६६ ।।
जीवा पुग्गलकाया अण्णोण्णागाढगहणपडिबद्धा। काले विजुज्जमाणा सहदुक्खं दिति भुंजंति।।६७।।
जीवा: पुद्गलकाया: अन्योन्यावगाढग्रहणप्रतिबद्धाः। काले वियुज्यमानाः सुखदु:खं ददति भुञ्जन्ति।।६७।।
इस प्रकार, जीवसे किये गये बिना ही पुद्गल स्वयं कर्मरूपसे परिणमित होते हैं।। ६५ ।।
गाथा ६६
अन्वयार्थ:- [ यथाः ] जिस प्रकार [ पुद्गलद्रव्याणां] पुद्गलद्रव्योंकी [ बहुप्रकारैः ] अनेक प्रकारकी [ स्कंधनिर्वृत्तिः] स्कन्धरचना [ परैः अकृता] परसे किये गये बिना [दृष्टा] होती दिखाई देती है, [ तथा ] उसी प्रकार [ कर्मणां ] कर्मोकी बहुप्रकारता [ विजानीहि ] परसे अकृत जानो।
टीका:- कर्मोकी विचित्रता [ बहुप्रकारता] अन्य द्वारा नहीं की जाती ऐसा यहाँ कहा है।
जिस प्रकार अपनेको योग्य चंद्र-सूर्यके प्रकाशकी उपलब्धि होने पर, संध्या-बादल इन्द्रधनुष-प्रभामण्डळ इत्यादि अनेक प्रकारसे पुद्गलस्कंधभेद अन्य कर्ताकी अपेक्षाके बिना ही उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार अपनेको योग्य जीव-परिणामकी उपलब्धि होने पर, ज्ञानावरणादि अनेक प्रकारके कर्म भी अन्य कर्ताकी अपेक्षाके बिना ही उत्पन्न होते हैं।
भावार्थ:- कर्मोकी विविध प्रकृति-प्रदेश-स्थिति-अनुभागरूप विचित्रता भी जीवकृत नहीं है, पुद्गलकृत ही है।। ६६ ।।
जीव-पुद्गलो अन्योन्यमां अवगाह ग्रहीने बद्ध छ; काळे वियोग लहे तदा सुखदुःख आपे-भोगवे।६७।
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