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कहानजैनशास्त्रमाला]
षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
[१०७
कर्मजीवयोरन्योन्याकर्तृत्वेऽन्यदत्तफलान्योपभोगलक्षणदूषणपुरःसरः पूर्वपक्षोऽयम्।।३।। अथ सिद्धांतसुत्राणि
*ओगाढगाढणिचिदो पोग्गलकायेहि सव्वदो लोगो। सुहमेहिं बादरेहिं य णंताणंतेहिं विविधेहिं।। ६४।।
गाथा ६३
अन्वयार्थ:- [ यदि] यदि [ कर्म] कर्म [ कर्म करोति] कर्मको करे और [ सः आत्मा] आत्मा [आत्मानम् करोति] आत्माको करे तो [ कर्म] कर्म [ फलम् कथं ददाति] आत्माको फल क्यों देगा [च ] और [ आत्मा ] आत्मा [ तस्य फलं भुङ्क्ते ] उसका फल क्यों भोगेगा ?
टीका:- यदि कर्म और जीवको अन्योन्य अकर्तापना हो, तो 'अन्यका दिया हुआ फल अन्य भोगे' ऐसा प्रसंग आयेगा; - ऐसा दोष बतलाकर यहाँ पूर्वपक्ष उपस्थित किया गया है।
भावार्थ:- शास्त्रोंमें कहा है कि [ पौद्गलिक ] कर्म जीवको फल देते हैं और जीव [ पौद्गलिक] कर्मका फल भोगता है। अब यदि जीव कर्मको करता ही न हो तो जीवसे नहीं किया गया कर्म जीवको फल क्यों देगा और जीव अपनेसे नहीं किये गये कर्मके फलको क्यों भोगेगा? जीवसे नहीं किया कर्म जीवको फल दे और जीव उस फलको भोगे यह किसी प्रकार न्याययुक्त नहीं है।
*श्री प्रवचनसारमें १६८ वी गाथा इस गाथासे मिलती है।
अवगाढ गाढ भरेल छे सर्वत्र पुद्गलकायथी आ लोक बादर-सुक्ष्मथी, विधविध अनंतानंतथी। ६४।
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