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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates १०६] पंचास्तिकायसंग्रह [भगवानश्रीकुन्दकुन्द कम्मं कम्म कुव्वदि जदि सो अप्पा करेदि अप्पाणं। किध तस्स फलं भुजदि अप्पा कम्मं च देदि फलं।। ६३।। कर्म कर्म करोति यदि स आत्मा करोत्यात्मानम्। कंथ तस्य फलं भुक्ते आत्मा कर्म च ददाति फलम्।।६३।। इसी प्रकार [१] जीव स्वतंत्ररूपसे जीवभावको करता होनेसे जीव स्वयं ही कर्ता है; [२] स्वयं जीवभावरूपसे परिणमित होनकी शक्तिवाला होनेसे जीव स्वयं ही करण है; [३] जीवभावको प्राप्त करता- पहुँचता होनेसे जीवभाव कर्म है, अथवा जीवभावसे स्वयं अभिन्न होनेसे जीव स्वयं ही कर्म है; [४] अपनेमेंसे पूर्व भावका व्यय करके [ नवीन] जीवभाव करता होनेसे और जीवद्रव्यरूपसे ध्रुव रहनेसे जीव स्वयं ही अपादान है; [५] अपनेको जीवभाव देता होनेसे जीव स्वयं ही सम्प्रदान है; [६] अपनेमें अर्थात् अपने आधारसे जीवभाव करता होनेसे जीव स्वयं ही अधिकरण है। इस प्रकार, पुद्गलकी कर्मोदयादिरूपसे या कर्मबंधादिरूपसे परिणमित होनेकी क्रियामें वास्तवमें पुद्गल ही स्वयमेव छह कारकरूपसे वर्तता है इसलिये उसे अन्य कारकोकी अपेक्षा नहीं है तथा जीवकी औदयिकादि भावरूपसे परिणमित होनेकी क्रियामें वास्तवमें जीव स्वयं ही छह कारकरूपसे वर्तता है इसलिये उसे अन्य कारकोंकी अपेक्षा नहीं है। पुद्गलकी और जीवकी उपरोक्त क्रियाएँ एक ही कालमें वर्तती है तथापि पौद्गलिक क्रियामें वर्तते हुए पुद्गलके छह कारक जीवकारकोंसे बिलकुल भिन्न और निरपेक्ष हैं तथा जीवभावरूप क्रियामें वर्तते हुए जीवके छह कारक पुद्गलकारकोंसे बिलकुल भिन्न और निरपेक्ष हैं। वास्तवमें किसी द्रव्यके कारकोंको किसी अन्य द्रव्यके कारकोंकी अपेक्षा नहीं होती।। ६२ ।। जो कर्म कर्म करे अने आत्मा करे बस आत्मने, क्यम कर्म फळ दे जीवने ? क्यम जीव ते फळ भोगवे? ६३। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008395
Book TitlePunchaastikaai Sangrah
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages293
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size3 MB
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