________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
१०८]
पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
अवगाढगाढनिचितः पुद्गलकायैः सर्वतो लोकः।
सुक्ष्मैर्बादरैश्चानंतानंतैर्विविधैः।। ६४।। कर्मयोग्यपुद्गला अञ्जनचूर्णपूर्णसमुद्गकन्यायेन सर्वलोकव्यापित्वाद्यत्रात्मा तत्रानानीता एवावतिष्ठंत इत्यत्रोक्तम्।। ६४।।
अत्ता कुणदि सभावं तत्थ गदा पोग्गला सभावेहिं। गच्छंति कम्मभावं अण्णोण्णागाहमवगाढा।।६५।।
आत्मा करोति स्वभावं तत्र गताः पुद्गलाः स्वभावैः। गच्छन्ति कर्मभावमन्योन्यावगाहावगाढा।।६५।।
इस प्रकार, 'कर्म' कर्मको ही करता है और आत्मा आत्माको ही करता है' इस बातमें पूर्वोक्त दोष आनेसे यह बात घटित नहीं होती - इस प्रकार यहाँ पूर्वपक्ष उपस्थित किया गया है।। ६३ ।।
अब सिद्धान्तसूत्र है [अर्थात् अब ६३वीं गाथामें कहे गये पूर्वपक्षके निराकरणपूर्वक सिद्धान्तका प्रतिपादन करने वाली गाथाएँ कही जाती है।
गाथा ६४
अन्वयार्थ:- [ लोक:] लोक [ सर्वतः ] सर्वत: [ विविधैः ] विविध प्रकारके, [अनंतानंतैः ] अनन्तानन्त [ सूक्ष्मैः बादरैः च ] सूक्ष्म तथा बादर [ पुद्गलकायैः ] पुद्गलकायों [ पुद्गलस्कंधों ] द्वारा [अवगाढगाढनिचितः ] [ विशिष्ट रीतिसे] अवगाहित होकर गाढ़ भरा हुआ है।
टीका:- यहाँ ऐसा कहा है कि - कर्मयोग्य पुद्गल [ कार्माणवर्गणारूप पुद्गलस्कंध ] अंजनचूर्णसे [ अंजनके बारीक चूर्णसे ] भरी हुई डिब्बीके न्यायसे समस्त लोकमें व्याप्त है; इसलिये जहाँ आत्मा है वहाँ, बिना लाये ही [ कहींसे लाये बिना ही], वे स्थित हैं।। ६४।।
आत्मा करे निज भाव ज्यां, त्यां पुदगलो निज भावथी कर्मत्वरूपे परिणमे अन्योन्य-अवगाहित थई। ६५।
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com