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कहानजैनशास्त्रमाला]
षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
[ १०३
पूर्वसूत्रोदितपूर्वपक्षसिद्धांतोऽयम्।
व्यवहारेण निमित्तमात्रत्वाज्जीवभावस्य कर्म कर्तृ, कर्मणोऽपि जीवभावः कर्ता; निश्चयेन तु न जीवभावानां कर्म कर्तृ, न कर्मणो जीवभावः। न च ते कर्तारमंतरेण संभूयेते; यतो निश्चयेन जीवपरिणामानां जीवः कर्ता, कर्मपरिणामानां कर्म कर्तृ इति।।६०।।
कुव्वं सगं सहावं अत्ता कत्ता सगस्स भावस्स। ण हि पोग्गलकम्माणं इति जिणवयणं मुणेयव्वं ।। ६१।।
कुर्वन् स्वकं स्वभावं आत्मा कर्ता स्वकस्य भावस्य। न हि पुद्गलकर्मणामिति जिनवचनं ज्ञातव्यम्।।६१।।
टीका:- यह, पूर्व सूत्रमें [५९ वीं गाथामें ] कहे हुए पूर्वपक्षके समाधानरूप सिद्धान्त है।
व्यवहारसे निमित्तमात्रपनेके कारण जीवभावका कर्म कर्ता है [-औदयिकादि जीवभावका कर्ता द्रव्यकर्म है], कर्मका भी जीवभाव कर्ता है; निश्चयसे तो जीवभावोंका न तो कर्म कर्ता है और न कर्मका जीवभाव कर्ता है। वे [ जीवभाव और द्रव्यकर्म] कर्ताके बिना होते हैं ऐसा भी नहीं है; क्योंकि निश्चयसे जीवपरिणामोंका जीव कर्ता है और कर्मपरिणामोंका कर्म [-पुद्गल ] कर्ता है।। ६०।।
गाथा ६१
अन्वयार्थ:- [ स्वकं स्वभावं ] अपने स्वभावको [ कुर्वन् ] करता हुआ [ आत्मा] आत्मा [हि] वास्तवमें [ स्वकस्य भावस्य ] अपने भावका [कर्ता] कर्ता है, [न पुद्गलकर्मणाम् ] पुद्गलकर्मोका नहीं; [इति] ऐसा [ जिनवचनं ] जिनवचन [ ज्ञातव्यम् ] जानना।
* यद्यपि शुद्धनिश्चयसे केवज्ञानादि शुद्धभाव ‘स्वभाव' कहलाते हैं तथापि अशुद्धनिश्चयसे रागादिक भी ‘स्वभाव' कहलाते हैं।
निज भाव करतो आतमा कर्ता खरे निज भावनो, कर्ता न पुद्गलकर्मनो;-उपदेश जिननो जाणवो।६१।
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