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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन [ १०३ पूर्वसूत्रोदितपूर्वपक्षसिद्धांतोऽयम्। व्यवहारेण निमित्तमात्रत्वाज्जीवभावस्य कर्म कर्तृ, कर्मणोऽपि जीवभावः कर्ता; निश्चयेन तु न जीवभावानां कर्म कर्तृ, न कर्मणो जीवभावः। न च ते कर्तारमंतरेण संभूयेते; यतो निश्चयेन जीवपरिणामानां जीवः कर्ता, कर्मपरिणामानां कर्म कर्तृ इति।।६०।। कुव्वं सगं सहावं अत्ता कत्ता सगस्स भावस्स। ण हि पोग्गलकम्माणं इति जिणवयणं मुणेयव्वं ।। ६१।। कुर्वन् स्वकं स्वभावं आत्मा कर्ता स्वकस्य भावस्य। न हि पुद्गलकर्मणामिति जिनवचनं ज्ञातव्यम्।।६१।। टीका:- यह, पूर्व सूत्रमें [५९ वीं गाथामें ] कहे हुए पूर्वपक्षके समाधानरूप सिद्धान्त है। व्यवहारसे निमित्तमात्रपनेके कारण जीवभावका कर्म कर्ता है [-औदयिकादि जीवभावका कर्ता द्रव्यकर्म है], कर्मका भी जीवभाव कर्ता है; निश्चयसे तो जीवभावोंका न तो कर्म कर्ता है और न कर्मका जीवभाव कर्ता है। वे [ जीवभाव और द्रव्यकर्म] कर्ताके बिना होते हैं ऐसा भी नहीं है; क्योंकि निश्चयसे जीवपरिणामोंका जीव कर्ता है और कर्मपरिणामोंका कर्म [-पुद्गल ] कर्ता है।। ६०।। गाथा ६१ अन्वयार्थ:- [ स्वकं स्वभावं ] अपने स्वभावको [ कुर्वन् ] करता हुआ [ आत्मा] आत्मा [हि] वास्तवमें [ स्वकस्य भावस्य ] अपने भावका [कर्ता] कर्ता है, [न पुद्गलकर्मणाम् ] पुद्गलकर्मोका नहीं; [इति] ऐसा [ जिनवचनं ] जिनवचन [ ज्ञातव्यम् ] जानना। * यद्यपि शुद्धनिश्चयसे केवज्ञानादि शुद्धभाव ‘स्वभाव' कहलाते हैं तथापि अशुद्धनिश्चयसे रागादिक भी ‘स्वभाव' कहलाते हैं। निज भाव करतो आतमा कर्ता खरे निज भावनो, कर्ता न पुद्गलकर्मनो;-उपदेश जिननो जाणवो।६१। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008395
Book TitlePunchaastikaai Sangrah
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages293
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size3 MB
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