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पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द जीवभावस्य कर्मकर्तृत्वे पूर्वपक्षोऽयम्। यदि खल्वौदयिकादिरूपो जीवस्य भावः कर्मणा क्रियते, तदा जीवस्तस्य कर्ता न भवति। न च जीवस्याकर्तृत्वामिष्यते। ततः पारिशेष्येण द्रव्यकर्मण: कर्तापद्यते। तत्तु कथम् ? यतो निश्चयनयेनात्मा स्वं भावमुज्झित्वा नान्यत्किमपि करोतीति।। ५९।।
भावो कम्मणिमित्तो कम्मं पुण भावकारणं हवदि। ण दु तेसिं खलु कत्ता ण विणा भूदा दु कत्तारं।। ६०।।
भावः कर्मनिमित्त: कर्म पुनर्भावकारणं भवति। न तु तेषां खलु कर्ता न विना भूतास्तु कर्तारम्।।६०।।
.............. टीका:- कर्मकी जीवभावका कतृत्व होनेके सम्बन्धमें यह *पूर्वपक्ष है।
यदि औदयिकादिरूप जीवका भाव कर्म द्वारा किया जाता हो, तो जीव उसका [औदयिकादिरूप जीवभावका ] कर्ता नहीं है ऐसा सिद्ध होता है। और जीवका अकतृत्व तो इष्ट [मान्य ] नहीं है। इसलिये, शेष यह रहा कि जीव द्रव्यकर्मका कर्ता होना चाहिये। लेकिन वह तो कैसे हो सकता है ? क्योंकि निश्चयनयसे आत्मा अपने भावको छोड़कर अन्य कुछ भी नहीं करता।
[ इस प्रकार पूर्वपक्ष उपस्थित किया गया] ।। ५९ ।।
गाथा ६०
अन्वयार्थ:- [ भावः कर्मनिमित्तः] जीवभावका कर्म निमित्त है [पुनः ] और [कर्म भावकारणं भवति] कर्मका जीवभाव निमित्त है, [ न तु तेषां खलु कर्ता] परन्तु वास्तवमें एक दूसरेके कर्ता नहीं है; [ न तु कर्तारम् विना भूताः ] कर्ताके बिना होते हैं ऐसा भी नहीं है।
* पूर्वपक्ष = चर्चा या निर्णयके लिये किसी शास्त्रीय विषयके सम्बन्धमें उपस्थित किया हुआ पक्ष ता प्रश्न।
रे! भाव कर्मनिमित्त छे ने कर्म भावनिमित्त छे. अन्योन्य नहि कर्ता खरे; कर्ता विना नहि थाय छ। ६०।
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