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कहानजैनशास्त्रमाला]
षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
[१०१
निरुपाधिः स्वाभाविक एव। क्षायिकस्तु स्वभावव्यक्तिरूपत्वादनंतोऽपि कर्मणः क्षयेणोत्पद्यमानत्वात्सादिरिति कर्मकृत एवोक्तः। औपशमिकस्तु कर्मणामुपशमे समुत्पद्यमानत्वादनुपशमे समुच्छिद्यमानत्वात् कर्मकृत एवेति।।
__ अथवा उदयोपशमक्षयक्षयोपशमलक्षणाश्चतस्रो द्रव्यकर्मणामेवावस्थाः, न पुन: परिणामलक्षणैकावस्थस्य जीवस्य; तत उदयादिसंजातानामात्मनो भावानां निमित्त
भावो जदि कम्मकदो अत्ता कम्मस्स होदि किध कत्ता। ण कुणदि अत्ता किंचि वि मुत्ता अण्णं सगं भावं।। ५९ ।।
भावो यदि कर्मकृत आत्मा कर्मणो भवति कथं कर्ता। न करोत्यात्मा किंचिदपि मुक्त्वान्यत् स्वकं भावम्।। ५९ ।।
कारण सादि है इसलिये कर्मकृत ही कहा गया है। औपशमिक भाव कर्मके उपशमसे उत्पन्न होने के कारण तथा अनुपशमसे नष्ट होनेके कारण कर्मकृत ही है। [इस प्रकार औदयिकादि चार भावोंको कर्मकृत संमत करना।]
अथवा [ दूसरे प्रकारसे व्याख्या करने पर]- उदय, उपशम , क्षय और क्षयोपशमस्वरूप चार [अवस्थाएँ] द्रव्यकर्मकी ही अवस्थाएँ हैं, परिणामस्वरूप एक अवस्थावाले जीवकी नहीं है [अर्थात् उदय आदि अवस्थाएँ द्रव्यकर्मकी ही हैं, 'परिणाम' जिसका स्वरूप है ऐसी एक अवस्थारूपसे अवस्थित जीवकी-पारिणामिक भावरूप स्थित जीवकी -वे चार अवस्थाएँ नहीं हैं]; इसलिये उदयादिक द्वारा उत्पन्न होनेवाले आत्माके भावोंको निमित्तमात्रभूत ऐसी उस प्रकारकी अवस्थाओंरूप [द्रव्यकर्म ] स्वयं परिणमित होनेके कारण द्रव्यकर्म भी व्यवहारनयसे आत्माके भावोंके कतृत्वको प्राप्त होता है।। ५८।।
गाथा ५९
अन्वयार्थ:- [ यदि भावः कर्मकृतः ] यदि भाव [-जीवभाव ] कर्मकृत हों तो [ आत्मा कर्मणाः कर्ता भवति ] आत्मा कर्मका [-द्रव्यकर्मका] कर्ता होना चाहिये। [ कथं ] वह तो कैसे हो सकता है ? [ आत्मा ] क्योंकि आत्मा तो [ स्वकं भावं मुक्त्वा ] अपने भावको छोड़कर [ अन्यत् किंचित् अपि] अन्य कुछ भी [ न करोति ] नहीं करता।
जो भावकर्ता कर्म, तो शुं कर्मकर्ता जीव छ ? जीव तो कदी करतो नथी निज भाव विण कंई अन्यने। ५९ ।
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