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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ९२] पंचास्तिकायसंग्रह [भगवानश्रीकुन्दकुन्द वर्णरसगंधस्पर्शाः परमाणुप्ररूपिता विशेषैः। द्रव्याच्च अनन्याः अन्यत्वप्रकाशका भवन्ति।। ५१ ।। दर्शनशाने तथा जीवनिबद्धे अनन्यभूते। व्यपदेशतः पृथक्त्वं कुरुते हि नो स्वभावात्।। ५२ ।। दृष्टांतदार्टान्तिकार्थपुरस्सरो द्रव्यगुणानामनांन्तरत्वव्याख्योपसंहारोऽयम्। वर्णरसगंधस्पर्शा हि परमाणोः प्ररूप्यंते; ते च परमाणोरविभक्तप्रदेशत्वेनानन्येऽपि संज्ञादिव्यपदेशनिबंधनैर्विशेषैरन्यत्वं प्रकाशयन्ति। एवं ज्ञानदर्शने अप्यात्मनि संबद्धे आत्मद्रव्यादविभक्तप्रदेशत्वेनानन्येऽपि संज्ञादिव्यपदेशनिबंधनैर्विशेषैः पृथक्त्वमासादयतः, स्वभावतस्तु नित्यमपृथक्त्वमेव बिभ्रतः।। ५१-५२।। -इतिउपयोगगुणव्याख्यानं समाप्तम्। गाथा ५१-५२ अन्वयार्थ:- [ परमाणुप्ररूपिताः] परमाणुमें प्ररूपित किये जाने वाले ऐसे [ वर्णरसगंधस्पर्शा:] वर्ण-रस-गंध-स्पर्श [ द्रव्यात् अनन्याः च] द्रव्यसे अनन्य वर्तते हुए [विशेषैः ] [ व्यपदेशके कारणभूत] विशेषों द्वारा [ अन्यत्वप्रकाशकाः भवन्ति ] अन्यत्वको प्रकाशित करनेवाले होते हैं [स्वभावसे अन्यरूप नहीं है]; [ तथा] इस प्रकार [ जीवनिबद्ध ] जीवमें सम्बद्ध ऐसे [ दर्शनज्ञाने] दर्शन-ज्ञान [अनन्यभूते] [जीवद्रव्यसे ] अनन्य वर्तते हुए [ व्यपदेशत: ] व्यपदेश द्वारा [ पृथक्त्वं कुरुते हि ] पृथक्त्व करते हैं। [नो स्वभावात् ] स्वभावसे नहीं। टीका:- दृष्टान्तरूप और हार्टान्तरूप पदार्थपूर्वक, द्रव्य तथा गुणोंके अभिन्न-पदार्थपनेके व्याख्यानका यह उपसंहार है। वर्ण-रस-गंध-स्पर्श वास्तवमें परमाणुमें प्ररूपित किये जाते हैं; वे परमाणुसे अभिन्न प्रदेशवाले होनेके कारण अनन्य होने पर भी, संज्ञादि व्यपदेशके कारणभूत विशेषों द्वारा अन्यत्वको प्रकाशित करते हैं। इस प्रकार आत्मामें सम्बद्ध ज्ञान-दर्शन भी आत्मद्रव्यसे अभिन्न प्रदेशवाले होनेके कारण अनन्य होने पर भी, संज्ञादि व्यपदेशके कारणभूत विशेषों द्वारा पृथक्पनेको प्राप्त होते हैं, परन्तु स्वभावसे सदैव अपृथक्पने को ही धारण करते हैं।। ५१-५२।। इस प्रकार उपयोगगुणका व्याख्यान समाप्त हुआ। * हार्टान्त = दृष्टान्त द्वारा समझाान हो वह बात; उपमेय। [ यहाँ परमाणु और वर्णादिक दृष्टान्तरूप पदार्थ हैं तथा जीव और ज्ञानादिक हार्टान्तरूप पदार्थ हैं।] Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008395
Book TitlePunchaastikaai Sangrah
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages293
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size3 MB
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