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कहानजैनशास्त्रमाला]
षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
द्रव्यगुणानामेकास्तित्वनिर्वृत्तित्वादनादिरनिधना सहवृत्तिर्हि समवर्तित्वम्; स एव समवायो जैनानाम्; तदेव संज्ञादिभ्यो भेदेऽपि वस्तुत्वेनाभेदादपृथग्भूतत्वम्; तदेव युतसिद्धिनिबंधनस्यास्तित्वान्तरस्याभावादयुतसिद्धत्वम्। ततो द्रव्यगुणानां समवर्तित्वलक्षणसमवायभाजामयुतसिद्धिरेव , न पृथग्भूतत्वमिति।।५०।।
वण्णरसगंधफासा परमाणुपरूविदा विसेसेहिं। दव्वादो य अणण्णा अण्णत्तपगासगा होति।।५१ ।। दसणणाणाणि तहा जीवणिबद्धाणि णण्णभूदाणि। ववदेसदो पुधत्तं कुव्वंति हि णो सभावादो।। ५२।।
टीका:- यह, समवायमें पदार्थान्तरपना होनेका निराकरण [ खण्डन ] है।
द्रव्य और गुण एक अस्तित्वसे रचित हैं उनकी जो अनादि-अनन्त सहवृत्ति [-एक साथ रहना] वह वास्तवमें समवर्तीपना है; वही, जैनोंके मतमें समवाय है; वही, संज्ञादि भेद होने पर भी [-द्रव्य और गुणोंको संज्ञा- लक्षण-प्रयोजन आदिकी अपेक्षासे भेद होने पर भी ] वस्तुरूपसे अभेद होनेसे अपृथक्पना है; वही, युतसिद्धिके कारणभूत अस्तित्वान्तरका अभाव होनेसे अयुतसिद्धपना है। इसलिये समवर्तित्वस्वरूप समवायवाले द्रव्य और गुणोंको अयुतसिद्धि ही है, पृथक्पना नहीं है।। ५०।।
१। अस्तित्वान्तर = भिन्न अस्तित्व। [युतसिद्धिका कारण भिन्न-भिन्न अस्तित्व है। लकड़ी और लकडीवालेकी भाँति
गुण और द्रव्यके अस्तित्व कभी भिन्न न होनेसे उन्हें युतसिद्धपना नहीं हो सकता।]
२। समवायका स्वरूप समवर्तीपना अर्थात् अनादि-अनन्त सहवृत्ति है। द्रव्य और गुणोंको ऐसा समवाय [ अनादि
अनन्त तादात्म्यमय सहवृत्ति ] होनेसे उन्हें अयुतसिद्धि है, कभी भी पृथक्पना नहीं है।
परमाणुमा प्ररूपित वरण, रस, गंध तेम ज स्पर्श जे, अणुथी अभिन्न रही विशेष वडे प्रकाशे भेदने; ५१। त्यम ज्ञानदर्शन जीवनियत अनन्य रहीने जीवथी, अन्यत्वना कर्ता बने व्यपदेशथी-न स्वभावथी। ५२।
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