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कहानजैनशास्त्रमाला]
षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
[९३
अथ कर्तृत्वगुणव्याख्यानम्। तत्रादिगाथात्रयेण तदुपोद्धातः
जीवा अणाइणिहणा संता णंता य जीवभावादो। सब्भावदो अणंता पंचग्गगुणप्पधाणा य।।५३।। जीवा अनादिनिधनाः सांता अनंताश्च जीवभावात्। सद्भावतोऽनंता: पञ्चाग्रगुणप्रधानाः च।। ५३ ।।
जीवा हि निश्चयेन परभावानामकरणात्स्वभावानां कर्तारो भविष्यन्ति। तांश्च कुर्वाणाः किमनादिनिधनाः, किं सादिसनिधनाः, किं साद्यनिधमाः, किं तदाकारेण परिणताः, किमपरिणताः भविष्यंतीत्याशङ्कयेदमुक्तम्।
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___अब कर्तृत्वगुणका व्याख्यान है। उसमें , प्रारम्भकी तीन गाथाओंसे उसका उपोद्घात किया जाता है।
गाथा ५३
अन्वयार्थ:- [जीवाः ] जीव [अनादिनिधनाः] [ पारिणामिकभावसे ] अनादि-अनन्त है, [ सांताः ] [ तीन भावोंसे ] सांत [अर्थात् सादि-सांत ] है [च] और [ जीवभावात् अनंताः ] जीवभावसे अनन्त है [अर्थात् जीवके सद्भावरूप क्षायिकभावसे सादि-अनन्त है] [ सद्भावतः अनंताः ] क्योंकि सद्भावसे जीव अनन्त ही होते हैं। [ पञ्चाग्रगुणप्रधानाः च] वे पाँच मुख्य गुणोंसे प्रधानतावाले हैं।
टीका:- निश्चयसे पर-भावोंका कतृत्व न होनेसे जीव स्व-भावोंके कर्ता होते हैं ; और उन्हें [-अपने भावोंको] करते हुए, क्या वे अनादि-अनन्त हैं ? क्या सादि-सांत हैं ? क्या सादि-अनन्त हैं ? क्या तदाकाररूप [ उस-रूप] परिणत है ? क्या [ तदाकाररूप] अपरिणत हैं ?- ऐसी आशंका करके यह कहा गया है [अर्थात् उन आशंकाओंके समाधानरूपसे यह गाथा कही गई है।
जीवो अनादि-अनंत, सांत , अनंत छे जीवभावथी, सद्भावथी नहि अंत होय; प्रधानता गुण पांचथी। ५३ ।
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