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८८]
पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
द्रव्यगुणानामांतरभूतत्वे दोषोऽयम्।
ज्ञानी ज्ञानाद्यद्यांतरभूतस्तदा स्वकरणांशमंतरेण परशुरहितदेवदत्तवत्करणव्यापारासमर्थत्वादचेतयमानोऽचेतन एव स्यात्। ज्ञानञ्च यदि ज्ञानिनोऽर्थांतरभूतं तदा तत्कर्जशमंतरेण देवदत्तरहितपरशुवत्तत्कर्तृत्वव्यापारासमर्थत्वादचेतयमानमचेतनमेव स्यात्। न च ज्ञानज्ञानिनोर्युतसिद्धयोस्संयोगेन चेतनत्वं द्रव्यस्य निर्विशेषस्य गुणानां निराश्रयाणां शून्यत्वादिति।। ४८।।
टीका:- द्रव्य और गुणोंको अर्थान्तरपना हो तो यह [ निम्नानुसार ] दोष आयेगा।
यदि ज्ञानी [-आत्मा] ज्ञानसे अर्थान्तरभूत हो तो [ आत्मा ] अपने करण–अंश बिना, कुल्हाड़ी रहित देवदत्तकी भाँति, 'करणका व्यापार करनेमें असमर्थ होनेसे नहीं चेतता [-जानता] हुआ अचेतन ही होगा। और यदि ज्ञान ज्ञानीसे [-आत्मासे ] अर्थान्तरभूत हो तो ज्ञान अपने कर्तृ-अंशके बिना, देवदत्त रहित कुल्हाड़ीकी भाँति, अपने कर्ताका व्यापार करनेमें असमर्थ होनेसे नहीं चेतता [-जानता] हुआ अचेतन ही होगा। पुनश्च, युतसिद्ध ऐसे ज्ञान और ज्ञानीको [-ज्ञान और आत्माको] संयोगसे चेतनपना हो ऐसा भी नहीं है, क्योंकि निर्विशेष द्रव्य और निराश्रय गुण शून्य होते हैं।। ४८।।
१। करणका व्यापार = साधनका कार्य। [आत्मा कर्ता है और ज्ञान करण है। यदि आत्मा ज्ञानसे भिन्न ही हो तो
आत्मा साधनका व्यापार अर्थात् ज्ञानका कार्य करनेमें असमर्थ होनेसे जान नहीं सकेगा इसलिये आत्माको अचेतनत्व आ जायेगा।] २। कर्ताका व्यापार = कर्ताका कार्य। [ ज्ञान करण है और आत्मा कर्ता है। यदि ज्ञान आत्मासे भिन्न ही हो तो
ज्ञान कर्ताका व्यापार अर्थात आत्माका कार्य करनेमें असमर्थ होनेसे जान नहीं सकेगा इसलिये ज्ञानको अचेतनपना आ जावेगा।]
३। युतसिद्ध = जुड़कर सिद्ध हुए; समवायसे-संयोगसे सिद्ध हुए। [ जिस प्रकार लकड़ी और मनुष्य पृथक् होने
पर भी लकड़ीके योगसे मनुष्य ‘लकड़ीवाला' होता है उसी प्रकार ज्ञान और आत्मा पृथक् होने पर भी ज्ञानके साथ युक्त होकर आत्मा ‘ज्ञानवाला [-ज्ञानी]' होता है ऐसा भी नहीं है। लकड़ी और मनुष्यकी भाँति ज्ञान और आत्मा कभी पृथक् होंगे ही कैसे ? विशेषरहित द्रव्य हो ही नहीं सकता, इसलिये ज्ञान रहित आत्मा कैसा ? और आश्रय बिना गुण हो ही नहीं सकता, इसलिये आत्माके बिना ज्ञान कैसा ? इसलिये 'लकड़ी' और 'लकड़ीवाले 'की भाँति 'ज्ञान' और 'ज्ञानी'का युतसिद्धपना घटित नहीं होता।
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