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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
[८७ नस्य, भिन्नसंख्यं भिन्नसंख्यस्य, भिन्नविषयलब्धवृत्तिकं भिन्नविषयलब्धवृत्तिकस्य पुरुषस्य धनीति व्यपदेशं पृथक्त्वप्रकारेण कुरुते, यथा च ज्ञानमभिन्नास्तित्वनिर्वृत्तमभिन्नास्तित्वनिर्वृत्तस्याभिन्नसंस्थानमभिन्नसंस्थानस्याभिन्नसंख्यमभिन्नसंख्यस्याभिन्नविषयलब्धवृत्तिकमभिन्नविषयलब्धवृत्तिकस्य पुरुषस्य ज्ञानीति व्यपदेशमेकत्वप्रकारेण कुरुते; तथान्यत्रापि। यत्र द्रव्यस्य भेदेन व्यपदेशादिः तत्र पृथक्त्वं, यत्राभेदेन तत्रैकत्वमिति।।४७।।
णाणी णाणं च सदा अत्यंतरिदा दु अण्णमण्णस्स। दोण्हं अचेदणत्तं पसजदि सम्मं जिणावमदं।। ४८।।
ज्ञानी ज्ञानं च सदार्थांतरिते त्वन्योऽन्यस्य। द्वयोरचेतनत्वं प्रसजति सम्यग जिनावमतम्।। ४८।।
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टीका:- यह, वस्तुरूपसे भेद और [ वस्तुरूपसे ] अभेदका उदाहरण है।
जिस प्रकार[१] भिन्न अस्तित्वसे रचित , [ २ ] भिन्न संस्थानवाला, [३] भिन्न संख्यावाला और [४] भिन्न विषयमें स्थित ऐसा धन [१] भिन्न अस्तित्वसे रचित, [२] भिन्न संस्थानवाले, [३] भिन्न संख्यावाले और [४] भिन्न विषयमें स्थित ऐसे पुरुषको 'धनी' ऐसा व्यपदेश पृथक्त्वप्रकारसे करता हैं, तथा जिस प्रकार [१] अभिन्न अस्तित्वसे रचित, [२] अभिन्न संस्थानवाला, [३] अभिन्न संख्यावाला और [४] अभिन्न विषयमें स्थित ऐसा ज्ञान [१] अभिन्न अस्तित्वसे रचित, [२] अभिन्न संस्थानवाले, [३] अभिन्न संख्यावाले और [४] अभिन्न विषयमें स्थित ऐसे पुरुषको 'ज्ञानी' ऐसा व्यपदेश एकत्वप्रकारसे करता है, उसी प्रकार अन्यत्र भी समझना चाहिये। जहाँ द्रव्यके भेदसे व्यपदेश आदि हों वहाँ पृथक्त्व है, जहाँ [ द्रव्यके ] अभेदसे [ व्यपदेश आदि] हों वहाँ एकत्व है।। ४७।।
गाथा ४८
अन्वयार्थः- [ ज्ञानी] यदि ज्ञानी [-आत्मा] [च ] और [ ज्ञानं ] ज्ञान [ सदा] सदा [अन्योऽन्यस्य ] परस्पर [ अर्थांतरिते तु] अर्थांतरभूत [ भिन्नपदार्थभूत ] हों तो [ द्वयोः ] दोनोंको [अचेतनत्वं प्रसजति] अचेतनपनेका प्रसंग आये- [ सम्यग् जिनावमतम् ] जो कि जिनोंको सम्यक् प्रकारसे असंमत है।
जो होय अर्थांतरपणुं अन्योन्य ज्ञानी-ज्ञानने, बन्ने अचेतनता लहे-जिनदेवने नहि मान्य जे। ४८।
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