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________________ ७८ ] Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पंचास्तिकायसंग्रह [भगवानश्रीकुन्दकुन्द वही पूर्वोक्त आत्मा, श्रुतज्ञानावरणका क्षयोपशम होने पर, मूर्त-अमूर्त वस्तुको परोक्षरूपसे जो जानता है उसे ज्ञानी श्रुतज्ञान कहते हैं। वह लब्धिरूप और भावनारूप है तथा उपयोगरूप और नयरूप है। ‘उपयोग' शब्दसे यहाँ वस्तुको ग्रहण करनेवाला प्रमाण समझना चाहिये अर्थात् सम्पूर्ण वस्तुको जाननेवाला ज्ञान समझना चाहिये और 'नय' शब्दसे वस्तुके [ गुणपर्यायरूप ] एक देशको ग्रहण करनेवाला ऐसा ज्ञाताका अभिप्राय समझना चाहिये । [ यहाँ ऐसा तात्पर्य ग्रहण करना चाहिये कि विशुद्धज्ञानदर्शन जिसका स्वभाव है ऐसे शुद्ध आत्मतत्त्वके सम्यक् श्रद्धान - ज्ञान- अनुचरणरूप अभेदरत्नत्रयात्मक जो भावश्रुत वही उपादेयभूत परमात्मतत्त्वका साधक होनेसे निश्चयसे उपादेय है किन्तु उसके साधनभूत बहिरंग श्रुतज्ञान तो व्यवहारसे उपादेय है । ] 1 यह आत्मा, अवधिज्ञानावरणका क्षयोपशम होने पर, मूर्त वस्तुको जो प्रत्यक्षरूपसे जानता है वह अवधिज्ञान है। वह अवधिज्ञान लब्धिरूप तथा उपयोगरूप ऐसा दो प्रकारका जानना । अथवा अवधिज्ञान देशावधि, परमावधि और सर्वावधि ऐसे भेदों द्वारा तीन प्रकारसे है । उसमें, परमावधि और सर्वावधि चैतन्यके उछलनेसे भरपूर आनन्दरूप परमसुखामृतके रसास्वादरूप समरसीभावसे परिणत चरमदेही तपोधनोंको होता है। तीनों प्रकारके अवधिज्ञान निश्चयसे विशिष्ट सम्यक्त्वादि गुणसे होते हैं। देवों और नारकोंके होनेवाले भवप्रत्ययी जो अवधिज्ञान वह नियमसे देशावधि ही होता है। यह आत्मा, मन:पर्ययज्ञानावरणका क्षयोपशम होने पर, परमनोगत मूर्त वस्तुको जो प्रत्यक्षरूपसे जानता है वह मन:पर्ययज्ञान है । ऋजुमति और विपुलमति ऐसे भेदों द्वारा मन:पर्ययज्ञान दो प्रकारका है। वहाँ, विपुलमति मन:पर्ययज्ञान परके मनवचनकाय सम्बन्धी पदार्थोंको, वक्र तथा अवक्र दोनोंको, जानता है और ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान तो ऋजुको [ अवक्रको ] ही जानता है। निर्विकार आत्माकी उपलब्धि और भावना सहित चरमदेही मुनियोंको विपुलमति मन:पर्ययज्ञान होता है। यह दोनों मन:पर्ययज्ञान वीतराग आत्मतत्त्वके सम्यक् श्रद्धान - ज्ञान - अनुष्ठानकी भावना सहित, पन्द्रह प्रमाद रहित अप्रमत्त मुनिको उपयोगमें- विशुद्ध परिणाममें - उत्पन्न होते हैं। यहाँ मन:पर्ययज्ञानके उत्पादकालमें ही अप्रमत्तपनेका नियम है, फिर प्रमत्तपनेमें भी वह संभवित होता है 1 Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008395
Book TitlePunchaastikaai Sangrah
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages293
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size3 MB
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