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कहानजैनशास्त्रमाला]
षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन परमनोगतं मूर्तद्रव्यं विकलं विशेषेणावबुध्यते तन्मनःपर्ययज्ञानम्, यत्सकलावरणात्यंतक्षये केवल एव मूर्तामूर्तद्रव्यं सकलं विशेषेणावबुध्यते तत्स्वाभाविकं केवलज्ञानम्। मिथ्यादर्शनोदयसहचरितमाभिनिबोधिकज्ञानमेव कुमतिज्ञानम्, मिथ्यादर्शनोदय-सहचरितं श्रुतज्ञानमेव कुश्रुतज्ञानम्, मिथ्यादर्शनोदयसहचरितमवधिज्ञानमेव विभङ्गज्ञानमिति स्वरूपाभिधानम्। इत्थं मतिज्ञानादिज्ञानोपयोगाष्टकं व्याख्यातम्।। ४१।।
विशेषतः अवबोधन करता है वह स्वाभाविक केवलज्ञान है, [६] मिथ्यादर्शनके उदयके साथका आभिनिबोधिकज्ञान ही कुमतिज्ञान है, [७] मिथ्यादर्शनके उदयके साथका श्रुतज्ञान ही कुश्रुतज्ञान है, [८] मिथ्यादर्शनके उदयके साथका अवधिज्ञान ही विभंगज्ञान है। - इस प्रकार [ ज्ञानोपयोगके भेदोंके ] स्वरूपका कथन है।
इस प्रकार मतिज्ञानादि आठ ज्ञानोपयोगोंका व्याख्यान किया गया।
भावार्थ:- प्रथम तो, निम्नानुसार पाँच ज्ञानोंका स्वरूप है:
निश्चयनयसे अखण्ड-एक-विशुद्धज्ञानमय ऐसा यह आत्मा व्यवहारनयसे संसारावस्थामें कर्मावृत्त वर्तता हुआ, मतिज्ञानावरणका क्षयोपशम होने पर, पाँच इन्द्रियों और मनसे मूर्त-अमूर्त वस्तुको विकल्परूपसे जो जानता है वह मतिज्ञान है। वह तीन प्रकारका है: उपलब्धिरूप, भावनारूप और उपयोगरूप। मतिज्ञानावरणके क्षयोपशमसे जनित अर्थग्रहणशक्ति [-पदार्थको जाननेकी शक्ति ] वह उपलब्धि है, जाने हुए पदार्थका पुनः पुनः चिंतन वह भावना है और यह काला है,' 'यह पीला है ' इत्यादिरूपसे अर्थग्रहणव्यापार [-पदार्थको जाननेका व्यापार ] वह उपयोग है। उसी प्रकार वह [ मतिज्ञान] अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणारूप भेदों द्वारा अथवा कोष्ठबुद्धि, बीजबुद्धि , पदानुसारीबुद्धि तथा संभिन्नश्रोतृताबुद्धि ऐसे भेदों द्वारा चार प्रकारका है। [ यहाँ, ऐसा तात्पर्य ग्रहण करना चाहिये कि निर्विकार शुद्ध अनुभूतिके प्रति अभिमुख जो मतिज्ञान वही उपादेयभूत अनन्त सुखका साधक होनेसे निश्चयसे उपादेय है, उसके साधनभूत बहिरंग मतिज्ञान तो व्यवहारसे उपादेय है।]
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