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पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
अत्र कः किं चेतयत इत्युक्तम्।
चेतयंते अनुभवन्ति उपलभंते विदंतीत्येकार्थाश्चेतनानुभूत्युपलब्धिवेदनानामेकार्थत्वात्। तत्र स्थावराः कर्मफलं चेतयंते, त्रसाः कार्यं चेतयंते, केवलज्ञानिनोज्ञानं चेतयंत इति।।३९ ।।
अथोपयोगगुणव्याख्यानम्। उवओगो खलु दुविहो णाणेण य दंसणेण संजुत्तो। जीवस्स सव्वकालं अणण्णभूदं वियाणीहि।। ४०।।
उपयोगः खलु द्विविधो ज्ञानेन च दर्शनेन संयुक्तः। जीवस्य सर्वकालमनन्यभूतं विजानीहि।। ४०।।
कर्मफलको चेतते हैं, त्रस कार्यको चेतते हैं, केवलज्ञानी ज्ञानको चेतते हैं।
भावार्थ:- पाँच प्रकारके स्थावर जीव अव्यक्त सुखदुःखानुभवरूप शुभाशुभकर्मफलको चेतते हैं। द्वीइन्द्रिय आदि त्रस जीव उसी कर्मफलको इच्छापूर्वक इष्टानिष्ट विकल्परूप कार्य सहित चेतते हैं। 'परिपूर्ण ज्ञानवन्त भगवन्त [अनन्त सौख्य सहित ] ज्ञानको ही चेतते हैं।। ३९ ।।
अब उपयोगगुणका व्याख्यान है।
१। यहा परिपूर्ण ज्ञानचेतनाकी विवक्षा होनेसे, केवलीभगवन्तों और सिद्धभगवन्तोंको ही ज्ञानचेतना कही गई
है। आंशिक ज्ञानचेतनाकी विवक्षासे तो मुनि, श्रावक तथा अविरत सम्यग्दृष्टिको भी ज्ञानचेतना कही जा सकती है; उनका यहाँ निषेध नहीं समझना, मात्र विवक्षाभेद है ऐसा समझना चाहिये।
छे ज्ञान ने दर्शन सहित उपयोग युगल प्रकारनो; जीवद्रव्यने ते सर्व काळ अनन्यरूपे जाणवो। ४०.
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