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कहानजैनशास्त्रमाला]
षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
[७३
कृतकृत्यत्वाच स्वतोऽव्यतिरिक्तस्वाभाविकसुखं ज्ञानमेव चेतयंत इति।।३८।।
सव्वे खलु कम्मफलं थावरकाया तसा हि कज्जजुदं। पाणित्तमदिक्कंता णाणं विदंति ते जीवा।।३९ ।।
सर्वे खलु कर्मफलं स्थावरकायास्त्रसा हि कार्ययुतम्। प्राणित्वमतिक्रांता: ज्ञानं विदन्ति ते जीवाः ।। ३९ ।।
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द्वारा 'ज्ञान' को ही - कि जो ज्ञान अपनेसे अव्यतिरिक्त स्वाभाविक सुखवाला है उसीको -चेतते हैं, क्योंकि उन्होंने समस्त वीर्यांतरायके क्षयसे अनन्त वीर्यको प्राप्त किया है इसलिये उनको [ विकारी सुखदुःखरूप] कर्मफल निर्जरित हो गया है और अत्यन्त कृतकृत्यपना हुआ है [अर्थात् कुछ भी करना लेशमात्र भी नहीं रहा है] ।। ३८ ।।
गाथा ३९
अन्वयार्थ:- [ सर्वे स्थावरकायाः] सर्व स्थावर जीवसमूह [खलु] वास्तवमें [कर्मफलं] कर्मफलको वेदते हैं, [त्रसा:] त्रस [हि] वास्तवमें [कार्ययुतम् ] कार्यसहित कर्मफलको वेदते हैं और [ प्राणित्वम् अतिक्रांताः ] जो प्राणित्वका [-प्राणोंका ] अतिक्रम कर गये हैं [ ते जीवाः ] वे जीव [ ज्ञानं ] ज्ञानको [ विंदन्ति ] वेदते हैं।
टीकाः- यहाँ, कौन क्या चेतता है [ अर्थात् किस जीवको कौनसी चेतना होती है ] वह कहा
चेतता है, अनुभव करता है, उपलब्ध करता है और वेदता है -ये एकार्थ हैं [ अर्थात् यह सब शब्द एक अर्थवाले हैं], क्योंकि चेतना, अनुभूति, उपलब्धि और वेदनाका एक अर्थ है। वहाँ, स्थावर
१। अव्यतिरिक्त = अभिन्न। [ स्वाभाविक सुख ज्ञानसे अभिन्न है इसलिये ज्ञानचेतना स्वाभाविक सुखके संचेतन
अनुभवन-सहित ही होती है।]
२। कृतकृत्य = कृतकार्य। [ परिपूर्ण ज्ञानवाले आत्मा अत्यन्त कतकार्य हैं इसलिये, यद्यपि उन्हें अनंत वीर्य प्रगट हुआ है तथापि, उनका वीर्य कार्यचेतनाको [ कर्मचेतनाको ] नहीं रचता, [ और विकारी सुखदुःख विनष्ट हो गये हैं इसलिये उनका वीर्य कर्मफल चेतनाको भी नहीं रचता,] ज्ञानचेतनाको ही रचता है।]
वेदे करमफल स्थावरो, त्रस कार्ययुत फल अनुभवे, प्राणित्वथी अतिक्रान्त जे ते जीव वेदे ज्ञानने। ३९।
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