________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
[ ७५
कहानजैनशास्त्रमाला ]
षड्द्रव्य - पंचास्तिकायवर्णन
एव,
आत्मनश्चैतन्यानुविधायी परिणाम उपयोगः । सोऽपि द्विविधः - ज्ञानोपयोगो दर्शनो-पयोगश्च । तत्र विशेषग्राहि ज्ञानं, सामान्यग्राहि दर्शनम्। उपयोगश्च सर्वदा जीवादपृथग्भूत एकास्तित्वनिर्वृत्तत्वादिति ।। ४० ।।
आभिणिसुदोधिमणकेवलाणि णाणाणि पंचभेयाणि । कुमदिसुदविभंगाणि य तिण्णि वि णाणेहिं संजुत्ते ।। ४१ ।।
आभिनिबोधिकश्रुतावधिमन:पर्ययकेवलानि ज्ञानानि पञ्चभेदानि । कुमतिश्रुतविभङ्गानि च त्रीण्यपि ज्ञानैः संयुक्तानि ।।४१।।
अन्वयार्थ:- [ ज्ञानेन च दर्शनेन संयुक्तः ] ज्ञान और दर्शनसे संयुक्त ऐसा [ खलु द्विविधः ] वास्तवमें दो प्रकारका [ उपयोगः ] उपयोग [ जीवस्य ] जीवको [ सर्वकालम् ] सर्व काल [ अनन्यभूतं ] अनन्यरूपसे [ विजानीहि ] जानो ।
गाथा ४०
टीका:- आत्मका चैतन्य - अनुविधायी [ अर्थात् चैतन्यका अनुसरण करनेवाला ] परिणाम सो उपयोग है। वह भी दो प्रकारका है - ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग। वहाँ, विशेषको ग्रहण करनेवाला ज्ञान है और सामान्यको ग्रहण करनेवाला दर्शन है [ अर्थात् विशेष जिसमें प्रतिभासित हो वह ज्ञान है और सामान्य जिसमें प्रतिभासित हो वह दर्शन है ]। और उपयोग सर्वदा जीवसे *अपृथग्भूतही है, क्योंकि एक अस्तित्वसे रचित है ।। ४० ।।
* अपृथग्भूत
अन्वयार्थ:- [ आभिनिबोधिकश्रुतावधिमन:पर्ययकेवलानि ] आभिनिबोधिक [ -मति ], श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल - [ ज्ञानानि पञ्चभेदानि ] इस प्रकार ज्ञानके पाँच भेद हैं; [ कुमतिश्रुतविभङ्गानि च ] और कुमति, कुश्रुत और विभंग - [ त्रीणि अपि ] यह तीन [ अज्ञान ] भी [ ज्ञानै: ] [ पाँच ] ज्ञानके साथ [ संयुक्तानि ] संयुक्त किये गये हैं । [ इस प्रकार ज्ञानोपयोगके आठ भेद हैं।]
=
गाथा ४१
अभिन्न। [ उपयोग सदैव जीवसे अभिन्न ही है, क्योंकि वे एक अस्तित्वसे निष्पन्न है।
मति, श्रुत, अवधि, मन:, केवल पांच भेदो ज्ञानना; कुमति, कुश्रुत, विभंग-त्रण पण ज्ञान साथे जोड़वां । ४१ ।
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com