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________________ योगसारप्राभृत शतक सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र का आधार है, मोहरूपी महा अंधकार को नाश करनेवाला एक मात्र सम्यग्ज्ञान है, पुरुष अर्थात् आत्मा के प्रयोजन को पूरा करनेवाला है मोक्ष का साक्षात् साधन सम्यग्ज्ञान है । (४२) न भोगता हुआ मिथ्यादृष्टि बंधक - सरागो बध्यते पापैरभुञ्जानोऽपि निश्चितम् । अभुञ्जाना न किं मत्स्याः श्वभ्रं यान्ति कषायतः । । १६७ ।। जिसप्रकार स्वयम्भूरमण समुद्र में रहनेवाला तन्दुलमत्स्य न भोगता हुआ भी क्या कषाय से अर्थात् भोगने की लालसा से नरक को प्राप्त नहीं होता? अर्थात् नरक को प्राप्त होता ही है। उसीप्रकार द्रव्यों को न भोगता हुआ भी भोग में सुख की मान्यता रखनेवाला सरागी अर्थात् मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्वादि सर्व पाप कर्मों के बंध को प्राप्त होता है, यह निश्चित है । १४ (४३) वचनों से जीव का सम्बन्ध नहीं - न निन्दा - स्तुति - वाक्यानि श्रूयमाणानि कुर्वते । संबन्धाभावतः किंचिद् रुष्यते तुष्यते वृथा ।। २२० ।। सुनने को मिले हुए निन्दा अथवा स्तुतिरूप वचन जीव का कुछ भी अच्छा-बुरा नहीं करते; क्योंकि वचनों का जीव के साथ सम्बन्ध नहीं है । अज्ञानी जीव निन्दा अथवा स्तुतिरूप वचनों को सुनकर व्यर्थ ही राग-द्वेष करते हैं। (४४) शुद्ध आत्मा को छोड़कर उपासना करनेवालों की स्थिति - मुक्त्वा विविक्तमात्मानं मुक्त्यै ये ऽन्यमुपासते । भजन्ति हिमं मूढा विमुच्याग्निं हिमच्छिदे ।। २७३ ।। योगसारप्राभृत शतक विविक्त अर्थात् (द्रव्यकर्म-भावकर्म-नोकर्म से रहित) त्रिकाली, निज शुद्ध, सुख-स्वरूप भगवान आत्मा को छोड़कर जो अन्य (कल्पित रागी -द्वेषी देवी-देवताओं को अथवा अरहंत-सिद्ध आदि इष्ट देवों) भी मुक्ति के लिये उपासना / ध्यान करते हैं, वे मूढ़ कष्टदायक अि ठंड का नाश करने के लिये अग्नि को छोड़कर शीतलस्वभावी बर्फ का ही सेवन करते हैं, जो नियम से अनिष्ट फल दाता है। १५ (४५) जो अन्यत्र देव को ढूँढता है, उसकी स्थिति - योऽन्यत्र वीक्षते देवं देहस्थे परमात्मनि । सोऽन्ने सिद्धे गृहे शङ्के भिक्षां भ्रमति मूढधीः ।। २७४ ।। वास्तविक देखा जाय तो अपने ही देहरूपी देवालय में परमात्मदेव विराजमान होने पर भी जो अज्ञानी परमात्मदेव को अन्यत्र मंदिर, तीर्थक्षेत्र आदि स्थान में ढूँढता है, मैं अमितगति आचार्य समझता हूँ कि वह मूढबुद्धि अपने ही घर में पौष्टिक और रुचिकर भोजन तैयार होने पर भी दीन-हीन बनकर भिक्षा के लिये अन्य के घरों में भ्रमण करता है। (४६) भोगता हुआ सम्यग्दृष्टि अबन्धक - नीरागोऽप्राकं द्रव्यं भुञ्जानोऽपि न बध्यते । शङ्खः किं जायते कृष्ण: कर्दमादौ चरन्नपि । । १६६ ।। जिसप्रकार कीचड आदि में विचरता / पड़ा हुआ भी शंख क्या काला हो जाता है ? कदापि काला नहीं हो जाता, वह सफेद ही बना रहता है । उसीप्रकार जो कथंचित् वीतरागी हुआ श्रावक है, वह अप्रा पदार्थों का भोजन/सेवन करता हुआ भी मिथ्यात्वादि अनेक कर्म प्रकृतियों के बन्ध को प्राप्त नहीं होता ।
SR No.008392
Book TitleYogasara Prabhrut Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2004
Total Pages19
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size101 KB
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