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________________ योगसारप्राभृत शतक योगसारप्राभृत शतक हम-आप आत्मज्ञान कर सकते हैं - इसमें युक्ति येनार्थो ज्ञायते तेन ज्ञानी न ज्ञायते कथम् । उद्योतो दृश्यते येन दीपस्तेन तरां न किम् ।।२९०।। जैसे दीपक के प्रकाश को देखनेवाला मनुष्य प्रकाश-उत्पादक उस दीपक को सहजरूप से देखता है। वैसे जो ज्ञान, जड़-पुद्गलादि पदार्थ को जानता है; वही ज्ञान, ज्ञान उत्पादक जीव को भी अवश्य जानता है। (३५) पद्रव्य को जानने का लाभ - विज्ञातव्यं परद्रव्यमात्मद्रव्य-जिघृक्षया। अविज्ञातपरद्रव्यो नात्मद्रव्यं जिघृक्षति ।।२८३।। आत्मद्रव्य को ग्रहण करने की इच्छा से परद्रव्य को जानना चाहिए। जो परद्रव्य के ज्ञान से रहित है, वह आत्मद्रव्य के ग्रहण की इच्छा नहीं करता। (३६) जिसकी उपासना उसकी प्राप्ति - ज्ञानस्य ज्ञानमज्ञानमज्ञानस्य प्रयच्छति । आराधना कृता यस्माद् विद्यमानं प्रदीयते ।।२८६।। जो विवेकी जीव ज्ञान की अर्थात् ज्ञानस्वभावी आत्मा की आराधना करता है, उसे ज्ञान प्राप्त होता है और जो अविवेकी अज्ञान की अर्थात् अज्ञानस्वभावी जड़ की आराधना करता है, उसे अज्ञान प्राप्त होता है; क्योंकि यह जगप्रसिद्ध सिद्धांत है कि जिसके पास जो वस्तु होती है, वह उसको देता है। (३७) परोक्ष ज्ञान से आत्मा की प्रतीति होती है - प्रतीयते परोक्षेण ज्ञानेन विषयो यदि। सोऽनेन परकीयेण तदा किं न प्रतीयते ।।२८९।। यदि मति-श्रुतरूप परोक्षज्ञान से स्पर्शादि विषयों का स्पष्ट/प्रत्यक्ष (सांव्यवहारिक) ज्ञान होता है तो इस मतिश्रुतरूप परोक्ष ज्ञान से ही ज्ञानमय आत्मा का स्पष्ट प्रत्यक्ष ज्ञान क्यों नहीं हो सकता? अर्थात् अवश्य हो सकता है। आत्मशद्धि के लिये ज्ञानाराधना - ज्ञानेन वासितो ज्ञाने नाज्ञानेऽसौ कदाचन । यतस्ततो मतिः कार्या ज्ञाने शुद्धिं विधित्सुभिः ।।२९९।। ज्ञान से संस्कारित हुआ जीव सदा ज्ञान में प्रवृत्त होता है, अज्ञान अर्थात् पुण्य-पाप में कदाचित् नहीं। इसलिए शुद्धि/वीतरागता/निर्जरा की इच्छा रखनेवाले को ज्ञान की उपासना/आराधना में बुद्धि लगाना चाहिए। (४०) आत्मा का स्वरूप ज्ञान है विभावसोरिवोष्णत्वं चरिष्णोरिव चापलम् । शशाङ्कस्येव शीतत्वं स्वरूपं ज्ञानमात्मनः ।।३११।। जिसप्रकार सूर्य का स्वरूप उष्णपना, वायु का स्वरूप चंचलपना और चन्द्रमा का स्वरूप शीतलपना है; उसीप्रकार आत्मा का स्वरूप ज्ञान है। (४१) ज्ञान की महिमा - अनुष्ठानास्पदं ज्ञानं ज्ञानं मोहतमोऽपहम् । पुरुषार्थकरं ज्ञानं ज्ञानं निर्वृति-साधनम् ।।४८७।।
SR No.008392
Book TitleYogasara Prabhrut Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2004
Total Pages19
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size101 KB
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