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भावार्थ :- जीव के जो भाव, कर्म के उदय के निमित्त से उत्पन्न होते हैं; उन्हें औदयिक भाव कहते हैं । जीव में उत्पन्न होनेवाला भाव औदयिक है और उस भाव में कर्म का उदय निमित्त है। जो औदयिक भाव उत्पन्न हुआ वह तत्काल नष्ट नहीं होता; क्योंकि वह भाव जबतक कर्म का उदय बना रहेगा तबतक विद्यमान ही रहेगा, यह विषय समझना महत्वपूर्ण है।
आस्रव अधिकार
जैसे बैंक में जबतक रकम जमा रहती है, तबतक ब्याज मिलता रहता है, उसीप्रकार जबतक जिस जीव के जिस कर्म का उदय बना रहता है, तबतक जीव के औदयिक भाव भी विद्यमान रहते हैं । इसतरह औदयिक भाव की मर्यादा कर्म के उदयकाल पर्यंत रहती है, यह समझ लेना चाहिए । मिथ्यात्व का स्वरूप एवं कार्य -
कुर्वाणः परमात्मानं सदात्मानं पुनः परम् । मिथ्यात्व - मोहित - स्वान्तो रजोग्राही निरन्तरम् ।। १३६ ।।
अन्वय :- - मिथ्यात्व - मोहित - स्वान्तः सदा परं आत्मानं, पुन: आत्मानं परं कुर्वाण: निरन्तरं (कर्म) रजोग्राही (भवति) ।
सरलार्थ :- जो मिथ्यात्व से मोहितचित्त होता हुआ सदा पर वस्तु को आत्मा मानता है और अपनी आत्मा को परद्रव्यरूप करता है, वह निरंतर कर्मरूपी रज को ग्रहण करता है अर्थात् उसे निरन्तर कर्मास्रव होता है।
भावार्थ :• पर-वस्तु को आत्मारूप मानना और अपनी आत्मा को परद्रव्यरूप मानना ही मिथ्यात्व है। इस विपरीत मान्यतारूप मिथ्यात्व से निरन्तर सात या आठ कर्मों का दुःखदायक आस्रव होता है।
मिथ्यादृष्टि के कार्य का खुलासा
राग-मत्सर-विद्वेष-लोभ-मोह - मदादिषु । हृषीक - कर्म - नोकर्म-रूप - स्पर्श - रसादिषु ।। १३७ ।। एतेऽहमहमेतेषामिति तादात्म्यमात्मनः ।
विमूढ़: कल्पयन्नात्मा स्व - परत्वं न बुध्यते । । १३८।।
अन्वय :- • विमूढ: आत्मा राग - मत्सर - विद्वेष- लोभ-मोह-मद-आदिषु हृषीक-कर्मनोकर्म-रूप- स्पर्श-रस-3 -आदिषु एते अहं एतेषां अहं इति आत्मनः तादात्म्यं कल्पयन् स्व-परत्वं बुध्यते ।
सरलार्थ :- मूढ आत्मा अर्थात् मिथ्यादृष्टि जीव राग, द्वेष, ईर्षा, लोभ, मोह, मदादिक में तथा इंद्रिय, कर्म, नोकर्म, रूप, रस, स्पर्शादिक विषयों में - ये मैं हूँ और मैं इनका हूँ, इसप्रकार आत्मा के तादात्म्य / एकत्व की कल्पना करता हुआ स्व-पर-विवेक को अर्थात् अपने और पर के यथार्थ बोध अर्थात् भेदज्ञान को प्राप्त नहीं होता ।
[C:/PM65/smarakpm65/annaji / yogsar prabhat.p65/105]