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योगसार-प्राभृत
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कोई कर्ता नहीं है; क्योंकि जो अनादि-अनंत होते हैं, उनका कोई कर्ता-धर्ता हर्ता होता ही नहीं । इन द्रव्यों में रहनेवाले गुणों की प्रत्येक समय जो नयी पर्यायें होती हैं उनका वास्तविक कर्ता वही द्रव्य होता है। उस समय उस पर्याय के होने में निमित्तरूप से कोई अन्य द्रव्य की पर्याय अनुकूल रहती है, उसे उस पर्याय का निमित्त कहने का व्यवहार है। पर्याय को ही निमित्त कहते हैं और उपादान में नैमित्तिकरूप से जो नवीन कार्य / अवस्था होती है, उसे नैमित्तिक कहते हैं अर्थात् यह सर्व निमित्त-नैमित्तिक संबंध मात्र पर्याय में होता रहता है, मूल द्रव्य में नहीं - यह मुख्य विषय आचार्य को इस श्लोक में बताना है ।
जीव तथा कर्म के कर्तासंबंधी ही नयसापेक्ष कथन
स्वकीय-गुण-कर्तृत्वं तत्त्वतो जीव-कर्मणोः । क्रियते हि गुणस्ताभ्यां व्यवहारेण गद्यते ।। १३४ ।।
अन्वय :- तत्त्वत: जीव - कर्मणोः स्वकीय-गुण-कर्तृत्वं (विद्यते ); ताभ्यां गुण: क्रियते (इति) हि व्यवहारेण गद्यते ।
सरलार्थ • निश्चयनय से जीव और कर्म में अपने-अपने गुणों का कर्तापना विद्यमान है अर्थात् जीव अपने ज्ञानादि गुणों/पर्यायों का और कार्माणवर्गणारूप पुद्गल कर्म अपने ज्ञानावरणादि गुणों/पर्यायों का कर्ता है। एक के द्वारा दूसरे के गुणों/पर्यायों का किया जाना जो कहा जाता है, वह सर्व व्यवहारनय की अपेक्षा से कहा जाता है ।
भावार्थ :- श्लोक में जो गुणों का कर्ता कहा गया है; वहाँ गुण का अर्थ पर्याय ही करना चाहिए; क्योंकि गुण तो अनादि अनंत और स्वयम्भू ही होते हैं ।
व्यवहारनय से एक द्रव्य को दूसरे द्रव्य की पर्यायों का कर्ता कहा गया है, वह कथनमात्र ही है, वास्तविक नहीं; ऐसा समझना चाहिए। अज्ञानी जन जैसी मान्यता रखते हैं, उसे ही ज्ञानीजन व्यवहारनय का कथन कहकर स्वीकार करते हैं; परंतु वस्तुस्थिति वैसी नहीं होती । पुद्गल की अपेक्षा से जीव के औदयिक भावों की उत्पत्ति तथा स्थिति उत्पद्यन्ते यथा भावा: पुद्गलापेक्षयात्मनः ।
तथैवौदयिका भावा विद्यन्ते तदपेक्षया ।। १३५ ।।
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अन्वय :- यथा पुद्गलापेक्षया आत्मनः भावाः उत्पद्यन्ते तथा एव तदपेक्षया औदयिकाः भावा: विद्यन्ते ।
सरलार्थ :- जिसप्रकार पुद्गलात्मक कर्म के उदयादि की अपेक्षा अर्थात् निमित्त पाकर जीव के औदयिकादि भाव उत्पन्न होते हैं; उसीप्रकार पुद्गलरूप कर्म की अपेक्षा अर्थात् उदय के निमित्त से उत्पन्न औदयिक भाव विद्यमान रहते हैं।
[C:/PM65/smarakpm65 / annaji/yogsar prabhat.p65/104]